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− | {KKGlobal}}
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− | {{KKRachna
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− | |रचनाकार=कुमार मुकुल
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− | |संग्रह=ग्यारह सितम्बर और अन्य कविताएँ / कुमार मुकुल
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− | पटना के अर्धनगरीय इलाक़ों से गुज़रते
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− | सड़क किनारे की दुकानों में लगे
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− | शीशे के जारों में
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− | नज़रें कुछ ढूंढ़ती रहती हैं
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− | पाँव भागते रहते हैं
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− | पर निग़ाहें
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− | जारों में बन्द पदार्थों से लिपटतीं
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− | उनका स्वाद लेती चलती हैं
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− | पारचूनी दुकानों की धकापेल में
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− | चौक-चौराहों पर आसन जमाते जा रहे
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− | भूँजे की दुकानों के पास
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− | पाँवों को अक्सर
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− | अपनी बाग थामनी पड़ती है
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− | जहाँ शीशे के पीछे झाँकता रहता है
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− | चना-मूंगफली-मकई-मटर का भूँजा
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− | और चूड़ा-फरही
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− | कभी-कभी तिल की लाई
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− | और अँचार अक्सर
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− | स्वाद में लड्डू को मात देने वाले
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− | बेसन-गुड़ के लकठों की बात क्या
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− | और अब जबकि कोयल कूकने लगी है
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− | और बौरों को झाड़ते
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− | उभरने लगे हैं टिकोड़े
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− | चैत के पसरते तीखेपन के साथ
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− | पसरने लगे हैं सत्तूवाले भी नगर में
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− | पटना जंक्शन के भीतर
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− | फेरी लगाने का लाइसेंस नहीं है इन्हें
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− | पर टिकसबाबू को टिकट देकर बहराती
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− | धूप में सजी सत्तू-नींबू-प्याज
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− | और कटी हरी मिर्च का गिलास पिलाने वाली
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− | दुकानों पर
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− | सत्तूखोरों की जमात जुटने लगती है
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− | नगर के फुटपाथों पर
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− | अपार्टमेंट्स की छाया में तो
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− | भरपेटा सत्तू खानेवाले मजूरों की
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− | अलग बैठकी ही लग जाती है
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− | इस तरह तो
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− | अमजीरा-भूजा-बेल और सत्तू मिलकर
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− | आगे चाय और बिस्किट को
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− | देश निकाला दे दें तो अचरज नहीं
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− | यूं आज के ग्लोबल विलेज में
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− | जीभ की जी-हजूरी कितनी करेंगे आप
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− | पर अरसे से
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− | सँवलाए पेड़ों का स्वाद
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− | नहीं मिला यहाँ
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− | सफ़ेद मैदे की लोई-सी सपाट
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− | ऊपर से चन्दन-टीका लगाए पेड़े तो
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− | मिल भी जाते हैं
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− | क्वालिटी कार्नर्स पे
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− | पर दही-चिउड़ा-खांड़-चीनी
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− | और साँवले बीच से धँसे पेड़ों वाली दुकानें
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− | कहाँ नज़र आती हैं अब
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− | डेयरीवालों से दूध नहीं बचता शायद
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− | यूँ अब वह भी बनाती है पेड़े- गुलाब जामुन
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− | लाल, घी से चपचपाते स्वाद वाले
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− | इसी के निकट के स्वाद वाले
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− | पीली सफ़ेदी लिए पेड़े
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− | रेडियो स्टेशन के पश्चिम वाली सड़क पर
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− | मिल जाते हैं
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− | पर कुछ ज़्यादा ही चीनी वाले
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− | भसभसाते
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− | जीभ पर रखते हवा हो जाने वाले
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− | उन पेड़ों की सूरत नज़र नहीं आती
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− | जिन्हें गाँव की गुमटी पर
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− | या संदेश बाजार पर खिलाते थे भीम चाचा
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− | फिर रामोतार के ही दस पैसे के
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− | बताशे के आकार के
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− | घर के बने खोए के स्वाद वाले
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− | पेड़ों को कैसे भूला जा सकता है
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− | ख़ासकर जब उस स्वाद का
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− | एक चेहरा भी हो
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− | यूँ तो झाल-मुरही ही बेचते थे रामोतार
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− | पर पेड़े भी होते थे कुछ
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− | दुबके कोने में
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− | जिन्हें चूहे सा कुतरता खाता मैं
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− | पैसे ना होने पर
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− | एक रद्दी अख़बार देने पर भी
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− | मिल जाता था एक पेड़ा
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− | गांधी जी की तरह ठेहुने तक
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− | धोती पहनते थे रामोतार
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− | एक तेलकट गंजी और सिर पर
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− | काली तख़्तियों वाली चारखूँटी टोकरी होती
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− | बाइस साल हो गए अब तो
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− | क्या उनके सर से उतर गई होगी टोकरी
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− | और उन्होंने भी खोल ली होगी
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− | अच्छी सी गुमटी...
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− | स्कूल के आठ वर्षों में तो
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− | उतर नहीं पाई थी वह
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− | रामोतार की तरह
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− | उनके पेड़ों का भी
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− | एक चेहरा होता था
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− | तलहथी और काले अंगूठों से
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− | दबाकर बनाई गई
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− | ढलवा धसान वाले पेड़े
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− | जिन्हें अंगूठे और अंगुलियों के बीच
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− | पोरों पर इस तरह टिकाता मैं
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− | कि आसानी से घुमा पाता चारों ओर
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− | और कुतर पाता उसे, कोरों से
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− | पूर्व मुख्यमंत्री आवास के पास लगे
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− | लेटरबाक्स से सटे हुआ करती थी कभी
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− | दही-चूड़ा-चाय-पान की दुकान
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− | वहाँ भी दिखते थे साँवले पेड़े कभी-कभार
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− | जहाँ हम दीपक-राजू चाय पीते अक्सर
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− | और पंजे लड़ाते कभी-कभार
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− | बेंच पर बैठे-बैठे
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− | अब तो उखड़ गई वह दुकान
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− | मंतरी चले गए हाशिए पर
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− | अब तो लिट्टी-चोखा-खैनी छाप
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− | आए हैं नए मंतरी
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− | जिनकी लिट्टी उनके विधायक-संतरी पकाते हैं
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− | और दुकान की इजाज़त नहीं अब
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− | सवाल सुरक्षा का है
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− | तो क्या वे पेड़े नहीं मिलेंगे अब
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− | अरुण कमल बताशे खिलाते हैं
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− | पीठा-पुआ भी कभी-कभी
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− | और प्रेम कुमार मणि के यहाँ
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− | गुड़-घी-तेल-तीसी-मेथी के काले लड्डू
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− | मिल ही जाते हैं साल में एकाध बार
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− | अजय-श्रीकांत मंगाते रहते हैं भोजपुर का खुरमा
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− | पर पेड़े कहाँ मिलेंगे
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− | दिल्ली में गौरीनाथ खिला देंगे
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− | सींगी मछलियाँ भूँजी हुई
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− | बनारस में मिल जाएगा
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− | दूध-दही-खोया काफी
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− | गुड़ की भेलियाँ भी मिल जाएंगी
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− | काशीनाथ सिंह के यहाँ
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− | और दानिश खिला देंगे लवंगलता प्रसिद्ध
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− | कनॉट प्लेस पर
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− | सींकों पर टंगा अल्हुआ (शकरकंद) खाती
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− | जींस-पैंट धारी लड़कियाँ भी मिल जाएंगी आपको
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− | और जलेबी-कचौड़ी की दुकानें भी
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− | बिहारी बहुल बस्तियों में
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− | दर भी पटना से कुछ कम ही
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− | पर सवाल
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− | रामोतार के पेड़ों का है
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− | सावन में बाबाधाम की परसादी
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− | कहीं से आती है
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− | तो लपककर उठा लेता हूँ
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− | टुकड़े पेड़े के
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− | फिर लचिदाने-चूड़े पर आता हूँ
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− | आखिर बताशों के बाद
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− | लचिदाने भी
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− | एक नेमत ही हैं।
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