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"झूठ का कुहासा / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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परहित का ताप ओढ़े
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बस दे रहीं धुआँ सा
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हर मर्सिडीज भागे
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पैसों की रोशनी में
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अच्छाई की हताशा
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घुटता है धर्म दबकर
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पाखंड की बरफ से
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तिस पर सियासतों के
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तूफ़ान हर तरफ से
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कुहरा बढ़ा रही है
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नफ़रत की कर्मनाशा
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पछुआ हवा ने पाला
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ऐसा गिराया सब पर
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रिश्तों के खेत सारे
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होने लगे हैं बंजर
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आयेंगी गर्मियाँ फिर
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बाक़ी है बस ये आशा
 
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23:35, 20 जनवरी 2019 के समय का अवतरण

अब सत्य की सड़क पर
है झूठ का कुहासा

स्वार्थों की ठंड
बढ़ती ही जा रही है हर-पल
परहित का ताप ओढ़े
सुविधा का नर्म कम्बल

सब प्रेम की लकड़ियाँ
बस दे रहीं धुआँ सा

हर मर्सिडीज भागे
पैसों की रोशनी में
ईमान-दीप वाले
डगमग बहें तरी में

बढ़ती ही जा रही है
अच्छाई की हताशा

घुटता है धर्म दबकर
पाखंड की बरफ से
तिस पर सियासतों के
तूफ़ान हर तरफ से

कुहरा बढ़ा रही है
नफ़रत की कर्मनाशा

पछुआ हवा ने पाला
ऐसा गिराया सब पर
रिश्तों के खेत सारे
होने लगे हैं बंजर

आयेंगी गर्मियाँ फिर
बाक़ी है बस ये आशा