"भूल सुधार / विजयशंकर चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर
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मैं बहुत पुराना एक जवाब सुधारना चाहता था | मैं बहुत पुराना एक जवाब सुधारना चाहता था | ||
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जो बिगड़ गया था मुझ से स्कूल के दिनों में | जो बिगड़ गया था मुझ से स्कूल के दिनों में | ||
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और मेरे सपनों में आता था। | और मेरे सपनों में आता था। | ||
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गज़ब ये कि उसकी जांच-कॉपी मिल गई थी मुझे | गज़ब ये कि उसकी जांच-कॉपी मिल गई थी मुझे | ||
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अरसा बाद एक दिन परचून की दूकान में | अरसा बाद एक दिन परचून की दूकान में | ||
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चाय की पत्ती में लपटी हुई। | चाय की पत्ती में लपटी हुई। | ||
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मुझे सजाना था हॉस्टल का वह कमरा | मुझे सजाना था हॉस्टल का वह कमरा | ||
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जिसे अस्त-व्यस्त छोड़ मैं निकला था कभी न लौटने के लिए। | जिसे अस्त-व्यस्त छोड़ मैं निकला था कभी न लौटने के लिए। | ||
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मुझे कटाना था अपना नाम उस खोमचे वाले की उधारी से | मुझे कटाना था अपना नाम उस खोमचे वाले की उधारी से | ||
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जो बैठता था गोलगप्पे लेकर स्कूल के गेट पर। | जो बैठता था गोलगप्पे लेकर स्कूल के गेट पर। | ||
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विदा करते वक़्त हाथ यों नहीं हिलाना था | विदा करते वक़्त हाथ यों नहीं हिलाना था | ||
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कि दोस्त लौट ही न सकें मेरी उम्र रहते। | कि दोस्त लौट ही न सकें मेरी उम्र रहते। | ||
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माँ की वह आलमारी करीने से लगानी थी | माँ की वह आलमारी करीने से लगानी थी | ||
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जिसमें बेतरतीब पड़ी रहती थीं साड़ियाँ | जिसमें बेतरतीब पड़ी रहती थीं साड़ियाँ | ||
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जो मुझे माँ जैसी ही लगती थीं। | जो मुझे माँ जैसी ही लगती थीं। | ||
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रुई जैसी जलती यादों को | रुई जैसी जलती यादों को | ||
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वक़्त की ओखली में कूट-कूट कर चूरन बना देना था। | वक़्त की ओखली में कूट-कूट कर चूरन बना देना था। | ||
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लौटा देना था वह फूल | लौटा देना था वह फूल | ||
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जो मेरी पसलियों में पाथर बनकर कसकता रहता है दिन-रात। | जो मेरी पसलियों में पाथर बनकर कसकता रहता है दिन-रात। | ||
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काग़ज़ की कश्ती यों नहीं बहाना थी | काग़ज़ की कश्ती यों नहीं बहाना थी | ||
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कि वह अटक जाए तुम तक पहुँचने के पहले ही। | कि वह अटक जाए तुम तक पहुँचने के पहले ही। | ||
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मुझे संभालकर रखना था वह स्वेटर | मुझे संभालकर रखना था वह स्वेटर | ||
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जो किसी ने बुना था मेरे लिए गुनगुनी धूप में बैठकर | जो किसी ने बुना था मेरे लिए गुनगुनी धूप में बैठकर | ||
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मेरा नाम काढ़ते हुए। | मेरा नाम काढ़ते हुए। | ||
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मुझे खोज निकालना था वह इरेज़र | मुझे खोज निकालना था वह इरेज़र | ||
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जो उछल-कूद में बस्ते से गिर गया था | जो उछल-कूद में बस्ते से गिर गया था | ||
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छुटपन में। | छुटपन में। | ||
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बहुत-सी भूलें सुधारना थीं मुझे | बहुत-सी भूलें सुधारना थीं मुझे | ||
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पृथ्वी को उल्टा घुमाते हुए ले जाना था | पृथ्वी को उल्टा घुमाते हुए ले जाना था | ||
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रहट के पहिये की तरह | रहट के पहिये की तरह | ||
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पृथ्वी के घूमने के एकदम आरंभ में। | पृथ्वी के घूमने के एकदम आरंभ में। | ||
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20:03, 9 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
मैं बहुत पुराना एक जवाब सुधारना चाहता था
जो बिगड़ गया था मुझ से स्कूल के दिनों में
और मेरे सपनों में आता था।
गज़ब ये कि उसकी जांच-कॉपी मिल गई थी मुझे
अरसा बाद एक दिन परचून की दूकान में
चाय की पत्ती में लपटी हुई।
मुझे सजाना था हॉस्टल का वह कमरा
जिसे अस्त-व्यस्त छोड़ मैं निकला था कभी न लौटने के लिए।
मुझे कटाना था अपना नाम उस खोमचे वाले की उधारी से
जो बैठता था गोलगप्पे लेकर स्कूल के गेट पर।
विदा करते वक़्त हाथ यों नहीं हिलाना था
कि दोस्त लौट ही न सकें मेरी उम्र रहते।
माँ की वह आलमारी करीने से लगानी थी
जिसमें बेतरतीब पड़ी रहती थीं साड़ियाँ
जो मुझे माँ जैसी ही लगती थीं।
रुई जैसी जलती यादों को
वक़्त की ओखली में कूट-कूट कर चूरन बना देना था।
लौटा देना था वह फूल
जो मेरी पसलियों में पाथर बनकर कसकता रहता है दिन-रात।
काग़ज़ की कश्ती यों नहीं बहाना थी
कि वह अटक जाए तुम तक पहुँचने के पहले ही।
मुझे संभालकर रखना था वह स्वेटर
जो किसी ने बुना था मेरे लिए गुनगुनी धूप में बैठकर
मेरा नाम काढ़ते हुए।
मुझे खोज निकालना था वह इरेज़र
जो उछल-कूद में बस्ते से गिर गया था
छुटपन में।
बहुत-सी भूलें सुधारना थीं मुझे
पृथ्वी को उल्टा घुमाते हुए ले जाना था
रहट के पहिये की तरह
पृथ्वी के घूमने के एकदम आरंभ में।