"कोसी का कौमार्य / सुरेन्द्र स्निग्ध" के अवतरणों में अंतर
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01:16, 7 मई 2019 के समय का अवतरण
कोसी क्षेत्र के एक लोकगीत को सुनकर
पानी से भरी गगरी लिए
सदियों से प्रतीक्षारत हूँ मैं
कुँवारी माँ
गगरी उठाने की बेचैनी
आँखों में प्रतीक्षा के हज़ार-हज़ार वर्षों के पल
सदियों की कच्ची उमर
और गगरी उठाने की बेबसी
सूरज के रथ में जुड़े
सात घोड़ों में से एक
स्वर्णकर्णी घोड़े को छीनकर
तूफ़ानों की गति से दौड़ता
आ ही रहा होगा
मेरा रैया सरदार
करोड़ों बलशाली पुरुष
उठाने को व्यग्र हैं मेरी गगरी
पृथ्वी से भी भारी
रस छलकाती गगरी
उठाएगा सिर्फ़ मेरा रैया सरदार
भरी हुई गगरी से भी भारी
होती जा रही है
दूध से भरी मेरी छातियाँ
दो-दो ब्रह्माण्डों के भार से लदी
कैसे उठा सकूँगी गगरी
सोने के पालने में
रो रहा होगा मेरा नवजात शिशु
हज़ारों वर्षों से
एक ही जगह अटका पड़ा है
अस्ताचलगामी सूरज का रथ
लगता है धुरी से अलग हो गया है
एक पहिया
या कि स्वर्णकर्णी घोड़े की तलाश में
विभिन्न दिशाओं में दौड़ पड़े हैं बाक़ी घोड़े
टूटने लगी हैं धैर्य की सारी सीमाएँ
तार-तार हो रहे हैं प्रकृति के वितान
टूटने के चरम बिन्दु पर
दिख गया है
अन्तरिक्ष तक लहराता
सूरज के सातवें घोड़े का लाल अयाल
उसकी हिनहिनाहट से काँप उठी है प्रकृति
लम्बी टाप से उठी आँधियों में
विलुप्त हो रहा है दिक्-दिगन्त
अपूर्व आवेग के साथ
स्वर्णकर्णी घोड़े पर सवार
आ रहा है मेरा रैया सरदार
अगले ही क्षण
धीरे से उठाकर गगरी
मेरे सिर पर रखता है मेरा प्यार
दूसरे हाथ से
पकड़ लेता है अनन्त तक फैला मेरा निर्मल आँचल
गुहार सुनो, मेरे देव !
छोड़ दो आँचल
मत रोको एक भी पल
ढलकेगा मेरा आँचल
तो छलक जाएगा
मेरी छातियों का दूध
रोएगा पालने में नन्हा शिशु
उसके क्रन्दन से
फट जाएगी धरती की छाती
आँसुओं की बाढ़ में
बह जाएगी पूरी सृष्टि
हो जाएगी जग हँसाई
मेरे कुँवारेपन में लग जाएगा दाग
धो-पोंछकर आने दो
धरती का आँगन, माँ का गह्वर
बूढ़े बाप को पिलाने दो निर्मल जल
नन्हें बालक को छाती का दूध
अपने सारे सत के साथ
मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ, रैया सरदार !
मैंने तुम्हारे लिए ही
सदियों से बचाकर रखा है
बड़े ही जतन से
अपना अक्षत यौवन
अपना सम्पूर्ण कौमार्य