"एक सामरिक चुप्पी / कुमार विकल" के अवतरणों में अंतर
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− | लेकिन वह उनकी मदद से मुझे गिनती सिखाती | + | लेकिन वह उनकी मदद से मुझे गिनती सिखाती थी...। |
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तो दो पर बीस | तो दो पर बीस | ||
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तीन पर तीस | तीन पर तीस | ||
− | चार पर | + | चार पर चालीस... |
और चालीस की संख्या आते ही | और चालीस की संख्या आते ही | ||
− | वह | + | वह खिलंडरी लड़की— |
मुझे अलीबाबा के नाम से चिढ़ाती | मुझे अलीबाबा के नाम से चिढ़ाती | ||
− | और चालीस चोरों की कहानी | + | और चालीस चोरों की कहानी सुनाती। |
कहानियाँ माँ भी सुनाया करती थी | कहानियाँ माँ भी सुनाया करती थी | ||
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जिसमें ताज़े संगतरों की ख़ुशबू | जिसमें ताज़े संगतरों की ख़ुशबू | ||
− | और चालीस चोरों का ज़िक्र साथ होता | + | और चालीस चोरों का ज़िक्र साथ होता था। |
माँ अब बूढ़ी हो चुकी है | माँ अब बूढ़ी हो चुकी है | ||
− | और कहती है कि जेहलम नदी सूखती जा रही | + | और कहती है कि जेहलम नदी सूखती जा रही है। |
माँ का विश्वास है | माँ का विश्वास है | ||
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जिसके शरीर से ताज़े संगतरों की ख़ुशबू आती थी— | जिसके शरीर से ताज़े संगतरों की ख़ुशबू आती थी— | ||
− | और जो एक रात इस नदी में डूब कर मर गई | + | और जो एक रात इस नदी में डूब कर मर गई थी। |
कहते हैं कि नदी में डूबकर मरने वालों की— | कहते हैं कि नदी में डूबकर मरने वालों की— | ||
− | :::आत्माएँ भटकती रहती | + | :::आत्माएँ भटकती रहती हैं... |
... नैनं छिन्दति शस्त्राणि,नैनं दहति पावक: | ... नैनं छिन्दति शस्त्राणि,नैनं दहति पावक: | ||
− | :::आत्मा कभी मरती | + | :::आत्मा कभी मरती नहीं। |
− | आत्मा मरती नहीं,शायद इसीलिए भटकती | + | आत्मा मरती नहीं,शायद इसीलिए भटकती है। |
और जब भटकती आत्मा की बात चलती है | और जब भटकती आत्मा की बात चलती है | ||
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तो सहसा मुझे— | तो सहसा मुझे— | ||
− | नागार्जुन की एक कविता की याद आती | + | नागार्जुन की एक कविता की याद आती है। |
− | + | नागार्जुन... | |
− | जो आजकल | + | जो आजकल कलकत्ता में रहते हैं |
और लोगों से कहते हैं | और लोगों से कहते हैं | ||
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कि कलकत्ता आओ— | कि कलकत्ता आओ— | ||
− | मैं तुम्हें भटकती आत्माएँ | + | मैं तुम्हें भटकती आत्माएँ दिखाऊंगा |
− | —भय और आतंक की ऐसी कविता | + | —भय और आतंक की ऐसी कविता सुनाऊंगा |
− | कि जिस्म के रोंगटे खड़े हो | + | कि जिस्म के रोंगटे खड़े हो जाएंगे |
− | आँखों में दहशत के जंगल उग | + | आँखों में दहशत के जंगल उग आएंगे। |
कलकत्ता अब सिर्फ़ एक शहर का नाम नहीं | कलकत्ता अब सिर्फ़ एक शहर का नाम नहीं | ||
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और जिसकी हिफ़ाजत के लिए | और जिसकी हिफ़ाजत के लिए | ||
− | आदमीनुमा दरिंदे दनदनाते हैं ! | + | आदमीनुमा दरिंदे दनदनाते हैं! |
− | नहीं मैं कलकत्ता नहीं | + | नहीं मैं कलकत्ता नहीं जाऊंगा |
− | नहीं | + | नहीं देखूंगा किस तरह आदमी— |
एक आतंक से दूसरे आतंक तक जीता है | एक आतंक से दूसरे आतंक तक जीता है | ||
पंक्ति 132: | पंक्ति 132: | ||
पीठ पर लाठियाँ खाता है | पीठ पर लाठियाँ खाता है | ||
− | आँखों से अश्रुगैस पीता | + | आँखों से अश्रुगैस पीता है। |
− | नहीं | + | नहीं देखूंगा किस तरह— |
झूठी मुठभेड़ों के नाम पर | झूठी मुठभेड़ों के नाम पर | ||
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और घरों में इंतज़ार कर रही माँएँ | और घरों में इंतज़ार कर रही माँएँ | ||
− | आँसू सूख जाने के बावजूद रोती | + | आँसू सूख जाने के बावजूद रोती हैं...। |
− | + | ... मुझे फिर अपनी माँ की याद आती है | |
जो अक्सर मुझे— | जो अक्सर मुझे— | ||
− | नागार्जुन की कविता से मिलती | + | नागार्जुन की कविता से मिलती-जुलती |
एक सच्ची कहानी सुनाती है | एक सच्ची कहानी सुनाती है | ||
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एक कारख़ाने की भट्टी में | एक कारख़ाने की भट्टी में | ||
− | ज़िंदा जला दिया | + | ज़िंदा जला दिया जाता। |
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कि दोनों बहनों के जिस्मों से | कि दोनों बहनों के जिस्मों से | ||
− | ताज़े संगतरे की ख़ुशबू आती | + | ताज़े संगतरे की ख़ुशबू आती थी। |
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तो हर बार वह यह कह कर टाल जाती है | तो हर बार वह यह कह कर टाल जाती है | ||
− | कि इस तरह के कारख़ाने शहर में होते | + | कि इस तरह के कारख़ाने शहर में होते हैं। |
मैं गिनती करने लगता हूँ— | मैं गिनती करने लगता हूँ— | ||
− | + | ... एक शहर में दो कारख़ाने हों | |
तो दो में चार | तो दो में चार | ||
पंक्ति 188: | पंक्ति 188: | ||
दस में बीस | दस में बीस | ||
− | बीस में चालीस,और | + | बीस में चालीस, और |
− | + | ...स्मृतियों के दालानों में | |
भटकती हुई एक आवाज़ आती है | भटकती हुई एक आवाज़ आती है | ||
− | + | अलीबाबा...अलीबाबा। | |
चोर मटकों में बंद हैं | चोर मटकों में बंद हैं | ||
− | इन्हें गर्म तेल से ज़िन्दा जला | + | इन्हें गर्म तेल से ज़िन्दा जला डालो। |
− | + | न...हीं... | |
मैं चीख़ना चाहता हूँ | मैं चीख़ना चाहता हूँ | ||
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लेकिन इनके हथियार | लेकिन इनके हथियार | ||
− | हमारे हथियारों से बहुत बड़े | + | हमारे हथियारों से बहुत बड़े हैं। |
मैं चीख़ता नहीं, चुप रहता हूँ | मैं चीख़ता नहीं, चुप रहता हूँ | ||
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वीराँ ,तुम भी चुप रहो | वीराँ ,तुम भी चुप रहो | ||
− | और स्मृतियों की दालानों में लौट | + | और स्मृतियों की दालानों में लौट जाओ। |
पंक्ति 233: | पंक्ति 233: | ||
एक सामरिक चुप्पी में | एक सामरिक चुप्पी में | ||
− | कविता से कोई बड़ा हथियार गढ़ रहा | + | कविता से कोई बड़ा हथियार गढ़ रहा हूँ। |
21:36, 12 अगस्त 2008 के समय का अवतरण
जब मैं अपनी कविताओं के बारे में सोचता हूँतो मुझे कई हथियारों के नाम याद आते हैं
और जब मेरे सामने कोई ताज़ा संगतरे छीलता है
तो मैं अपने बचपन में लौट जाता हूँ
…बचपन में हमारे पड़ोस में
वीराँ नाम की एक लड़की रहती थी जो मुझे अक्सर कहा करती थी
कि मैं दुनिया का सबसे शरारती बच्चा हूँ
और ज़रूर किसी दिन
चांद पर रहने वाली बुढ़िया का चरखा छीन कर ले आऊंगा
और उसके काते हुए सूत से अपने धनुष की डोरी बनाऊंगा।
वीराँ संगतरे नहीं खाती थी
लेकिन उसके शरीर से ताज़े संगतरों की
ख़ुश्बू आती थी
और जेहलम नदी तैरकर पार कर जाती थी।
नदी के पार संगतरों के बहुत पेड़ थे
मैंने कहा न वीराँ संगतरे नहीं खाती थी
(या शायद खा नहीं पाती थी)
लेकिन वह उनकी मदद से मुझे गिनती सिखाती थी...।
...एक पेड़ पर दस संगतरे हों
तो दो पर बीस
तीन पर तीस
चार पर चालीस...
और चालीस की संख्या आते ही
वह खिलंडरी लड़की—
मुझे अलीबाबा के नाम से चिढ़ाती
और चालीस चोरों की कहानी सुनाती।
कहानियाँ माँ भी सुनाया करती थी
और जेहलम के बारे में एक गीत गुनगुनाया करती थी
जिसमें ताज़े संगतरों की ख़ुशबू
और चालीस चोरों का ज़िक्र साथ होता था।
माँ अब बूढ़ी हो चुकी है
और कहती है कि जेहलम नदी सूखती जा रही है।
माँ का विश्वास है
कि जेहलम को वीराँ का शाप है—
जिसके शरीर से ताज़े संगतरों की ख़ुशबू आती थी—
और जो एक रात इस नदी में डूब कर मर गई थी।
कहते हैं कि नदी में डूबकर मरने वालों की—
- आत्माएँ भटकती रहती हैं...
... नैनं छिन्दति शस्त्राणि,नैनं दहति पावक:
- आत्मा कभी मरती नहीं।
आत्मा मरती नहीं,शायद इसीलिए भटकती है।
और जब भटकती आत्मा की बात चलती है
तो सहसा मुझे—
नागार्जुन की एक कविता की याद आती है।
नागार्जुन...
जो आजकल कलकत्ता में रहते हैं
और लोगों से कहते हैं
कि कलकत्ता आओ—
मैं तुम्हें भटकती आत्माएँ दिखाऊंगा
—भय और आतंक की ऐसी कविता सुनाऊंगा
कि जिस्म के रोंगटे खड़े हो जाएंगे
आँखों में दहशत के जंगल उग आएंगे।
कलकत्ता अब सिर्फ़ एक शहर का नाम नहीं
एक व्यवस्था का प्रतीक है
जिसे वनतंत्र कहते हैं
और जिसकी हिफ़ाजत के लिए
आदमीनुमा दरिंदे दनदनाते हैं!
नहीं मैं कलकत्ता नहीं जाऊंगा
नहीं देखूंगा किस तरह आदमी—
एक आतंक से दूसरे आतंक तक जीता है
पीठ पर लाठियाँ खाता है
आँखों से अश्रुगैस पीता है।
नहीं देखूंगा किस तरह—
झूठी मुठभेड़ों के नाम पर
नौजवानों की हत्याएँ होती हैं
और घरों में इंतज़ार कर रही माँएँ
आँसू सूख जाने के बावजूद रोती हैं...।
... मुझे फिर अपनी माँ की याद आती है
जो अक्सर मुझे—
नागार्जुन की कविता से मिलती-जुलती
एक सच्ची कहानी सुनाती है
जिसमें दो नौजवान बहनों को
एक कारख़ाने की भट्टी में
ज़िंदा जला दिया जाता।
माँ का कहना है—
कि दोनों बहनों के जिस्मों से
ताज़े संगतरे की ख़ुशबू आती थी।
मैं जब भी माँ से
उस कारख़ाने का नाम पूछता हूँ
तो हर बार वह यह कह कर टाल जाती है
कि इस तरह के कारख़ाने शहर में होते हैं।
मैं गिनती करने लगता हूँ—
... एक शहर में दो कारख़ाने हों
तो दो में चार
पाँच में दस
दस में बीस
बीस में चालीस, और
...स्मृतियों के दालानों में
भटकती हुई एक आवाज़ आती है
अलीबाबा...अलीबाबा।
चोर मटकों में बंद हैं
इन्हें गर्म तेल से ज़िन्दा जला डालो।
न...हीं...
मैं चीख़ना चाहता हूँ
चोर मटकों में बंद नहीं
तैयार दुश्मन की तरह सामने खड़े है
मैं और मेरे साथी इनसे कई बार लड़े हैं
लेकिन इनके हथियार
हमारे हथियारों से बहुत बड़े हैं।
मैं चीख़ता नहीं, चुप रहता हूँ
वीराँ ,तुम भी चुप रहो
और स्मृतियों की दालानों में लौट जाओ।
लेकिन नागार्जुन, तुम—
मेरी इस चुप्पी को ग़लत मत समझना
मैं तो अपने आपको
एक और लड़ाई के लिए तैयार कर रहा हूँ
और अपनी कविता से बाहर
एक सामरिक चुप्पी में
कविता से कोई बड़ा हथियार गढ़ रहा हूँ।