"बुराँस की नई कली / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर
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+ | सखी बसंत आ गया, दिशा-दिगंत छा गया | ||
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+ | पहाड़ियों का यह नगर | ||
+ | प्रेम गीत गुनगुना रहा | ||
+ | मुक्त भाव नदी-निर्झर | ||
+ | सुर-संगीत झनझना रहा | ||
+ | पर्वतों के कंठ में सुवास-सुरा घोल कर चली | ||
+ | सखी बसंत आ गया, धवल हिमवंत भा गया | ||
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+ | ये डाल-डाल झूमेगा | ||
+ | नव पात-पात घूमेगा | ||
+ | मन में आस है भरी | ||
+ | शाख सब होंगी हरी | ||
+ | एक किरण छू गई नन्ही-सी डोल कर चली | ||
+ | सखी बसंत आ गया, अम्बर-पर्यंत छा गया | ||
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+ | किवाड़ गाँव के विकल | ||
+ | झूम कर खुलेंगे कल | ||
+ | अब रंग जाएँगे बदल | ||
+ | पहाड़ सब जाएँगे संवर | ||
+ | कानों में प्रेम के मीठे बोल, बोलकर चली | ||
+ | सखी बसंत आ गया, शकुंतला-हिय दुष्यंत छा गया | ||
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+ | ब्रज अनुवादः | ||
+ | बुराँस की नई करी / रश्मि विभा त्रिपाठी | ||
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+ | बुराँस की नई करी किवार खोलि चलि परी | ||
+ | गुइयाँ बसंत आयौ, दिसा दिगंत छायौ | ||
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+ | पहाड़िनि कौ जे नगर | ||
+ | हिलनि गीत गुनगुनाइ रह्यौ | ||
+ | मुक्त भाव नदिया निरझर | ||
+ | सुर संगीत झनझनाइ रह्यौ | ||
+ | परबतन के कंठ मैं अरंग सुरा घोरि चलि परी | ||
+ | गुइयाँ बसंत आयौ, सेत हिमवंत भायौ | ||
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+ | जे डार डार झूमिहै | ||
+ | सद पात पात घूमिहै | ||
+ | जिय बीच आस ऐ भरी | ||
+ | साखा सिग ह्वैहैं हरी | ||
+ | एकु किरन परसि गई नैंकु सी डोरि चलि परी | ||
+ | गुइयाँ बसंत आयौ, अक्कास भरे मैं छायौ | ||
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+ | किवार गाम के बैहाइ | ||
+ | उघटि जैंहैं काल्हि उमदाइ | ||
+ | अजौं रंग फिरि जैंहैं | ||
+ | पहार सिग सँवरि जैंहैं | ||
+ | काननि मैं नेहा के मीठे बोल, बोलि चलि परी | ||
+ | सखी बसंत आयौ, सकुंतला हिय दुष्यंत छायौ। | ||
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08:20, 26 अगस्त 2024 के समय का अवतरण
बुराँस की नई कली किवाड़ खोलकर चली
सखी बसंत आ गया, दिशा-दिगंत छा गया
पहाड़ियों का यह नगर
प्रेम गीत गुनगुना रहा
मुक्त भाव नदी-निर्झर
सुर-संगीत झनझना रहा
पर्वतों के कंठ में सुवास-सुरा घोल कर चली
सखी बसंत आ गया, धवल हिमवंत भा गया
ये डाल-डाल झूमेगा
नव पात-पात घूमेगा
मन में आस है भरी
शाख सब होंगी हरी
एक किरण छू गई नन्ही-सी डोल कर चली
सखी बसंत आ गया, अम्बर-पर्यंत छा गया
किवाड़ गाँव के विकल
झूम कर खुलेंगे कल
अब रंग जाएँगे बदल
पहाड़ सब जाएँगे संवर
कानों में प्रेम के मीठे बोल, बोलकर चली
सखी बसंत आ गया, शकुंतला-हिय दुष्यंत छा गया
-0-
ब्रज अनुवादः
बुराँस की नई करी / रश्मि विभा त्रिपाठी
बुराँस की नई करी किवार खोलि चलि परी
गुइयाँ बसंत आयौ, दिसा दिगंत छायौ
पहाड़िनि कौ जे नगर
हिलनि गीत गुनगुनाइ रह्यौ
मुक्त भाव नदिया निरझर
सुर संगीत झनझनाइ रह्यौ
परबतन के कंठ मैं अरंग सुरा घोरि चलि परी
गुइयाँ बसंत आयौ, सेत हिमवंत भायौ
जे डार डार झूमिहै
सद पात पात घूमिहै
जिय बीच आस ऐ भरी
साखा सिग ह्वैहैं हरी
एकु किरन परसि गई नैंकु सी डोरि चलि परी
गुइयाँ बसंत आयौ, अक्कास भरे मैं छायौ
किवार गाम के बैहाइ
उघटि जैंहैं काल्हि उमदाइ
अजौं रंग फिरि जैंहैं
पहार सिग सँवरि जैंहैं
काननि मैं नेहा के मीठे बोल, बोलि चलि परी
सखी बसंत आयौ, सकुंतला हिय दुष्यंत छायौ।
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