"कलाकारों का सँयुक्त वक्तव्य / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर
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नहीं कभी जागे ऊषा की स्वर्णिम वेला में | नहीं कभी जागे ऊषा की स्वर्णिम वेला में | ||
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: -नींद हमारी खुली हमेशा आठ बजे । | : -नींद हमारी खुली हमेशा आठ बजे । | ||
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नहीं कभी घूमे उपवन में, नदियों के तट पर | नहीं कभी घूमे उपवन में, नदियों के तट पर | ||
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: -शामें बीतीं बहसें करते या लिखते-पढते । | : -शामें बीतीं बहसें करते या लिखते-पढते । | ||
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तितली के रंगों को हमने देखा नहीं कभी, | तितली के रंगों को हमने देखा नहीं कभी, | ||
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:कोयल में, बुलबुल में कोई फ़र्क न कर पाये । | :कोयल में, बुलबुल में कोई फ़र्क न कर पाये । | ||
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चातक और पपीहे के स्वर कानों में न पड़े | चातक और पपीहे के स्वर कानों में न पड़े | ||
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: -स्वर भी, हम भी : सँकरी गलियों में भूले-भटके । | : -स्वर भी, हम भी : सँकरी गलियों में भूले-भटके । | ||
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जाना नहीं कि सरसों का रंग कैसा होता है, | जाना नहीं कि सरसों का रंग कैसा होता है, | ||
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:-जब बसंत आया : हम जैसे अन्धे बने रहे । | :-जब बसंत आया : हम जैसे अन्धे बने रहे । | ||
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सावन में फ़ुरसत ही पाई नहीं मिनट भर की | सावन में फ़ुरसत ही पाई नहीं मिनट भर की | ||
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:-घर की सीलन, छत की टपकन ने उलझा रक्खा । | :-घर की सीलन, छत की टपकन ने उलझा रक्खा । | ||
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सचमुच हम थे कितने झूठे, कैसे धोखेबाज । | सचमुच हम थे कितने झूठे, कैसे धोखेबाज । | ||
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कहते फिरे हमेंशा जो सबसे- | कहते फिरे हमेंशा जो सबसे- | ||
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'हमें बहुत प्रिय है सौन्दर्य । | 'हमें बहुत प्रिय है सौन्दर्य । | ||
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सुन्दरता के लिए हमारा जीवन अर्पित है ।' | सुन्दरता के लिए हमारा जीवन अर्पित है ।' | ||
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'हम कुरूपता को धरती पर देख नहीं सकते, | 'हम कुरूपता को धरती पर देख नहीं सकते, | ||
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हम सुन्दरता के प्रेमी हैं ।'- | हम सुन्दरता के प्रेमी हैं ।'- | ||
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:ऐसा कहनेवाले हम थे कितने झूठे, कैसे धोखेबाज़। | :ऐसा कहनेवाले हम थे कितने झूठे, कैसे धोखेबाज़। | ||
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19:52, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
नहीं कभी जागे ऊषा की स्वर्णिम वेला में
-नींद हमारी खुली हमेशा आठ बजे ।
नहीं कभी घूमे उपवन में, नदियों के तट पर
-शामें बीतीं बहसें करते या लिखते-पढते ।
तितली के रंगों को हमने देखा नहीं कभी,
कोयल में, बुलबुल में कोई फ़र्क न कर पाये ।
चातक और पपीहे के स्वर कानों में न पड़े
-स्वर भी, हम भी : सँकरी गलियों में भूले-भटके ।
जाना नहीं कि सरसों का रंग कैसा होता है,
-जब बसंत आया : हम जैसे अन्धे बने रहे ।
सावन में फ़ुरसत ही पाई नहीं मिनट भर की
-घर की सीलन, छत की टपकन ने उलझा रक्खा ।
सचमुच हम थे कितने झूठे, कैसे धोखेबाज ।
कहते फिरे हमेंशा जो सबसे-
'हमें बहुत प्रिय है सौन्दर्य ।
सुन्दरता के लिए हमारा जीवन अर्पित है ।'
'हम कुरूपता को धरती पर देख नहीं सकते,
हम सुन्दरता के प्रेमी हैं ।'-
ऐसा कहनेवाले हम थे कितने झूठे, कैसे धोखेबाज़।