{{KKCatKavita}}
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'''1.'''
तुम दो चुटकी धूप
और एक मुश्त रात का
तुम कहो !
तुम अहो !
'''2.'''
कई इष्ट एकसाथ रूठे थे उससे
पितृदोष भी था
राहू कटे चान्द भी
पर वो भी कहाँ मनाने वाली थी !
सो कागों को चुग्गा डाल देती
अपनी अधलिखी आँखें
और नदियों को अर्घ्य देती
अँजुरी भर आँच
उफ़्फ़, वो अहमक लड़की !
बस एक ही सनक थी उसे
’अपनी शर्त पर जीना’
वही शर्त जो सदियों से
भारी पड़ती आई है
वो जानती थी
बे-खटका लड़की होना
नसीब से नहीं जूझ से मिलता है
तो सबसे लड़ जाती
अपने आप से सबसे ज़्यादा
अड़ियल लड़कियाँ जानती हैं लानतों का बोझ !
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