"बंध / ऋतु पल्लवी" के अवतरणों में अंतर
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बंधन बांधते नहीं और बिखेरते ही हैं | बंधन बांधते नहीं और बिखेरते ही हैं | ||
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अपनी हर कड़ी में व्यथा को और उकेरते ही हैं . | अपनी हर कड़ी में व्यथा को और उकेरते ही हैं . | ||
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तुम हाथ से हाथ को बाँधते हो | तुम हाथ से हाथ को बाँधते हो | ||
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उसमें छिपी सृजनता को नहीं सींचते | उसमें छिपी सृजनता को नहीं सींचते | ||
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निर्निमेष दृष्टि के अथाह होना चाहते हो | निर्निमेष दृष्टि के अथाह होना चाहते हो | ||
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पर अन्धकार से भय है , | पर अन्धकार से भय है , | ||
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यह हृदय पर कैसा विजय है? | यह हृदय पर कैसा विजय है? | ||
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मन का मान कहाँ है ? | मन का मान कहाँ है ? | ||
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कभी मही पर,कभी मेघ में | कभी मही पर,कभी मेघ में | ||
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निर्विवेक -कोई स्थान कहाँ है ? | निर्विवेक -कोई स्थान कहाँ है ? | ||
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जो बाहर की स्थिरता में सध गया | जो बाहर की स्थिरता में सध गया | ||
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संधान गति की तरलता का पा गया | संधान गति की तरलता का पा गया | ||
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पर अतलता की उसे कहाँ कुछ टोह | पर अतलता की उसे कहाँ कुछ टोह | ||
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जड़ का इतना मोह,चेतना से बिछोह ! | जड़ का इतना मोह,चेतना से बिछोह ! | ||
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बाँध लाए थे तुम एक फूलों का गुच्छा | बाँध लाए थे तुम एक फूलों का गुच्छा | ||
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तब से नित्य देखती हूँ- | तब से नित्य देखती हूँ- | ||
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गुलदान की ऊँची प्राचीरों में | गुलदान की ऊँची प्राचीरों में | ||
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कांच की दीवारों में , | कांच की दीवारों में , | ||
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गलते-सूखते-घुटते गुलाब को | गलते-सूखते-घुटते गुलाब को | ||
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और चकित होती हूँ ! | और चकित होती हूँ ! | ||
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किसी की व्यथा से पगे उदगार | किसी की व्यथा से पगे उदगार | ||
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कैसे हो सकते हैं मुझे उपहार ? | कैसे हो सकते हैं मुझे उपहार ? | ||
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नेह बंधन कब हैं ? | नेह बंधन कब हैं ? | ||
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वह तो मेह है-कूल है | वह तो मेह है-कूल है | ||
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जो केवल किनारे पर खड़ा रहता है | जो केवल किनारे पर खड़ा रहता है | ||
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और अपनी लहर को तड़ाग नहीं | और अपनी लहर को तड़ाग नहीं | ||
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विपथगा होने देना चाहता है- होने देता है . | विपथगा होने देना चाहता है- होने देता है . | ||
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दुष्कर - एक क्षण को ही सही | दुष्कर - एक क्षण को ही सही | ||
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मैं सहज स्फूर्ति वरदान होना चाहती हूँ | मैं सहज स्फूर्ति वरदान होना चाहती हूँ | ||
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नित्य का अभिशाप नहीं | नित्य का अभिशाप नहीं | ||
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मैं बंध कर क्या कह सकूंगी | मैं बंध कर क्या कह सकूंगी | ||
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स्वत्व को खोकर कितनी सत्व रहूंगी ? | स्वत्व को खोकर कितनी सत्व रहूंगी ? | ||
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कभी देखा है ग्रीष्म से उतप्त पवन को | कभी देखा है ग्रीष्म से उतप्त पवन को | ||
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बंध किवाडों मैं,झरोखों में ढकेलकर | बंध किवाडों मैं,झरोखों में ढकेलकर | ||
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उमस होकर क्लेद बन जाते -बह जाते हुए | उमस होकर क्लेद बन जाते -बह जाते हुए | ||
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जो निःसंग ,निर्वाक ,निर्विरोध | जो निःसंग ,निर्वाक ,निर्विरोध | ||
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संध्या तक बहती तो संभवतः | संध्या तक बहती तो संभवतः | ||
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प्रशांत हो भी जाती ! | प्रशांत हो भी जाती ! | ||
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19:43, 24 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
बंधन बांधते नहीं और बिखेरते ही हैं
अपनी हर कड़ी में व्यथा को और उकेरते ही हैं .
तुम हाथ से हाथ को बाँधते हो
उसमें छिपी सृजनता को नहीं सींचते
निर्निमेष दृष्टि के अथाह होना चाहते हो
पर अन्धकार से भय है ,
यह हृदय पर कैसा विजय है?
मन का मान कहाँ है ?
कभी मही पर,कभी मेघ में
निर्विवेक -कोई स्थान कहाँ है ?
जो बाहर की स्थिरता में सध गया
संधान गति की तरलता का पा गया
पर अतलता की उसे कहाँ कुछ टोह
जड़ का इतना मोह,चेतना से बिछोह !
बाँध लाए थे तुम एक फूलों का गुच्छा
तब से नित्य देखती हूँ-
गुलदान की ऊँची प्राचीरों में
कांच की दीवारों में ,
गलते-सूखते-घुटते गुलाब को
और चकित होती हूँ !
किसी की व्यथा से पगे उदगार
कैसे हो सकते हैं मुझे उपहार ?
नेह बंधन कब हैं ?
वह तो मेह है-कूल है
जो केवल किनारे पर खड़ा रहता है
और अपनी लहर को तड़ाग नहीं
विपथगा होने देना चाहता है- होने देता है .
दुष्कर - एक क्षण को ही सही
मैं सहज स्फूर्ति वरदान होना चाहती हूँ
नित्य का अभिशाप नहीं
मैं बंध कर क्या कह सकूंगी
स्वत्व को खोकर कितनी सत्व रहूंगी ?
कभी देखा है ग्रीष्म से उतप्त पवन को
बंध किवाडों मैं,झरोखों में ढकेलकर
उमस होकर क्लेद बन जाते -बह जाते हुए
जो निःसंग ,निर्वाक ,निर्विरोध
संध्या तक बहती तो संभवतः
प्रशांत हो भी जाती !