"माँ की तस्वीर / इला कुमार" के अवतरणों में अंतर
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मम्मी माँ मम्मा अम्मा, मइया माई | मम्मी माँ मम्मा अम्मा, मइया माई | ||
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जब जैसे पुकारा, माँ अवश्य आई | जब जैसे पुकारा, माँ अवश्य आई | ||
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कहा सब ने माँ ऐसी होती है माँ वैसी होती है | कहा सब ने माँ ऐसी होती है माँ वैसी होती है | ||
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पर सच में, माँ कैसी होती है | पर सच में, माँ कैसी होती है | ||
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सुबह सवेरे, नहा धोकर, ठाकुर को दिया जलातीं | सुबह सवेरे, नहा धोकर, ठाकुर को दिया जलातीं | ||
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हमारी शरारतों पर भी थोड़ा मुस्काती | हमारी शरारतों पर भी थोड़ा मुस्काती | ||
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फिर से झुक कर पाठ के श्लोक उच्चारती | फिर से झुक कर पाठ के श्लोक उच्चारती | ||
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माँ की यह तस्वीर कितनी पवित्र होती है | माँ की यह तस्वीर कितनी पवित्र होती है | ||
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शाम ढले, चूल्हा की लपकती कौंध से जगमगाता मुखड़ा | शाम ढले, चूल्हा की लपकती कौंध से जगमगाता मुखड़ा | ||
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सने हाथों से अगली रोटी के, आटे का टुकड़ा | सने हाथों से अगली रोटी के, आटे का टुकड़ा | ||
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गीली हथेली की पीठ से, उलझे बालों की लट को सरकाती | गीली हथेली की पीठ से, उलझे बालों की लट को सरकाती | ||
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माँ की यह भंगिमा क्या ग़रीब होती है? | माँ की यह भंगिमा क्या ग़रीब होती है? | ||
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रोज-रोज, पहले मिनिट में पराँठा सेंकती | रोज-रोज, पहले मिनिट में पराँठा सेंकती | ||
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दूसरे क्षण, नाश्ते की तश्तरी भरती | दूसरे क्षण, नाश्ते की तश्तरी भरती | ||
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तेज क़दमों से, सारे घर में, फिरकनी सी घूमती | तेज क़दमों से, सारे घर में, फिरकनी सी घूमती | ||
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साथ-साथ, अधखाई रोटी, जल्दी-जल्दी अपने मुँह में ठूसती | साथ-साथ, अधखाई रोटी, जल्दी-जल्दी अपने मुँह में ठूसती | ||
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माँ की यह तस्वीर क्या इतनी व्यस्त होती है? | माँ की यह तस्वीर क्या इतनी व्यस्त होती है? | ||
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इन सब से परे, हमारे मानस में रची बसी | इन सब से परे, हमारे मानस में रची बसी | ||
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सभी संवेदनाओं के कण-कण में घुली मिली | सभी संवेदनाओं के कण-कण में घुली मिली | ||
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हमारे व्यक्तित्व के रेशे से हर पल झाँकती | हमारे व्यक्तित्व के रेशे से हर पल झाँकती | ||
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हम सब की माँ, कुछ कुछ ऐसी ही होती है। | हम सब की माँ, कुछ कुछ ऐसी ही होती है। | ||
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01:41, 20 अप्रैल 2011 के समय का अवतरण
मम्मी माँ मम्मा अम्मा, मइया माई
जब जैसे पुकारा, माँ अवश्य आई
कहा सब ने माँ ऐसी होती है माँ वैसी होती है
पर सच में, माँ कैसी होती है
सुबह सवेरे, नहा धोकर, ठाकुर को दिया जलातीं
हमारी शरारतों पर भी थोड़ा मुस्काती
फिर से झुक कर पाठ के श्लोक उच्चारती
माँ की यह तस्वीर कितनी पवित्र होती है
शाम ढले, चूल्हा की लपकती कौंध से जगमगाता मुखड़ा
सने हाथों से अगली रोटी के, आटे का टुकड़ा
गीली हथेली की पीठ से, उलझे बालों की लट को सरकाती
माँ की यह भंगिमा क्या ग़रीब होती है?
रोज-रोज, पहले मिनिट में पराँठा सेंकती
दूसरे क्षण, नाश्ते की तश्तरी भरती
तेज क़दमों से, सारे घर में, फिरकनी सी घूमती
साथ-साथ, अधखाई रोटी, जल्दी-जल्दी अपने मुँह में ठूसती
माँ की यह तस्वीर क्या इतनी व्यस्त होती है?
इन सब से परे, हमारे मानस में रची बसी
सभी संवेदनाओं के कण-कण में घुली मिली
हमारे व्यक्तित्व के रेशे से हर पल झाँकती
हम सब की माँ, कुछ कुछ ऐसी ही होती है।