"बीड़ी सुलगाते पिता / विजयशंकर चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर
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खेत नहीं थी पिता की छाती | खेत नहीं थी पिता की छाती | ||
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फिर भी वहाँ थी एक साबुत दरार | फिर भी वहाँ थी एक साबुत दरार | ||
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पिता की आँखें देखना चाहती थीं हरियाली | पिता की आँखें देखना चाहती थीं हरियाली | ||
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सावन नहीं था घर के आसपास | सावन नहीं था घर के आसपास | ||
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पिता होना चाहते थे पुजारी | पिता होना चाहते थे पुजारी | ||
− | + | ख़ाली नहीं था दुनिया का कोई मन्दिर | |
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पिता ने लेना चाहा संन्यास | पिता ने लेना चाहा संन्यास | ||
− | + | पर घर नहीं था जंगल । | |
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अब पिता को नहीं आती याद कोई कहानी | अब पिता को नहीं आती याद कोई कहानी | ||
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रहते चुप अपनी दुनिया में | रहते चुप अपनी दुनिया में | ||
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पक गए उनकी छाती के बाल | पक गए उनकी छाती के बाल | ||
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देखता हूँ | देखता हूँ | ||
− | + | ढूँढ़ती हैं पिता की निगाहें | |
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पिता ने नहीं किया कोई यज्ञ | पिता ने नहीं किया कोई यज्ञ | ||
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पिता नहीं थे चक्रवर्ती | पिता नहीं थे चक्रवर्ती | ||
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कोई घोड़ा भी नहीं था उनके पास | कोई घोड़ा भी नहीं था उनके पास | ||
− | + | वे काटते रहे सफ़र | |
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हाँफते-खखारते | हाँफते-खखारते | ||
− | + | एक हाथ से फूँकते बीड़ी | |
− | फूँकते बीड़ी | + | छाती दबाए हुए दूसरे हाथ से । |
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पिता ने नहीं की किसी से चिरौरी | पिता ने नहीं की किसी से चिरौरी | ||
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तिनके के लिए नहीं बढ़ाया हाथ | तिनके के लिए नहीं बढ़ाया हाथ | ||
+ | हमारी दुनिया में सबसे ताक़तवर थे पिता । | ||
− | + | नँधे रहे जुए में उमर भर | |
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मगर टूटे नहीं | मगर टूटे नहीं | ||
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दबते गए धरती के बहुत-बहुत भीतर | दबते गए धरती के बहुत-बहुत भीतर | ||
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कोयला हो गए पिता | कोयला हो गए पिता | ||
− | + | कठिन दिनों में जब ज़रूरत होगी आग की | |
− | कठिन दिनों में जब | + | |
− | + | ||
हम खोज निकालेंगे | हम खोज निकालेंगे | ||
− | + | बीड़ी सुलगाते पिता । | |
− | बीड़ी सुलगाते | + | </poem> |
19:20, 24 नवम्बर 2018 के समय का अवतरण
खेत नहीं थी पिता की छाती
फिर भी वहाँ थी एक साबुत दरार
बिलकुल खेत की तरह ।
पिता की आँखें देखना चाहती थीं हरियाली
सावन नहीं था घर के आसपास
पिता होना चाहते थे पुजारी
ख़ाली नहीं था दुनिया का कोई मन्दिर
पिता ने लेना चाहा संन्यास
पर घर नहीं था जंगल ।
अब पिता को नहीं आती याद कोई कहानी
रहते चुप अपनी दुनिया में
पक गए उनकी छाती के बाल
देखता हूँ
ढूँढ़ती हैं पिता की निगाहें
मेरी छाती में कुछ ।
पिता ने नहीं किया कोई यज्ञ
पिता नहीं थे चक्रवर्ती
कोई घोड़ा भी नहीं था उनके पास
वे काटते रहे सफ़र
हाँफते-खखारते
एक हाथ से फूँकते बीड़ी
छाती दबाए हुए दूसरे हाथ से ।
पिता ने नहीं की किसी से चिरौरी
तिनके के लिए नहीं बढ़ाया हाथ
हमारी दुनिया में सबसे ताक़तवर थे पिता ।
नँधे रहे जुए में उमर भर
मगर टूटे नहीं
दबते गए धरती के बहुत-बहुत भीतर
कोयला हो गए पिता
कठिन दिनों में जब ज़रूरत होगी आग की
हम खोज निकालेंगे
बीड़ी सुलगाते पिता ।