"सृष्टि / अरुण कमल" के अवतरणों में अंतर
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शुरू में कुछ भी नहीं था | शुरू में कुछ भी नहीं था | ||
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थी बस मिट्टी | थी बस मिट्टी | ||
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पानी | पानी | ||
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पुआल | पुआल | ||
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और पटरे-खपच्चियाँ | और पटरे-खपच्चियाँ | ||
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काठ के चौड़े पटरे पर | काठ के चौड़े पटरे पर | ||
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दो-तीन खपच्चियाँ ठोंकी गईं | दो-तीन खपच्चियाँ ठोंकी गईं | ||
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फिर चारों ओर लपेटा गया | फिर चारों ओर लपेटा गया | ||
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खाली पुआल | खाली पुआल | ||
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कहीं ज़्यादा कहीं कम | कहीं ज़्यादा कहीं कम | ||
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कहीं कुछ कसा कहीं जरा ढीला | कहीं कुछ कसा कहीं जरा ढीला | ||
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और लगा जैसे खड़ा हो आदमी का धड़ | और लगा जैसे खड़ा हो आदमी का धड़ | ||
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कुछ-कुछ मोथे की जड़-सा ऊबड़-खाबड़ | कुछ-कुछ मोथे की जड़-सा ऊबड़-खाबड़ | ||
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गूंधी गई काली मिट्टी | गूंधी गई काली मिट्टी | ||
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मिट्टी का ही कुछ बना लेप | मिट्टी का ही कुछ बना लेप | ||
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और बार-बार पानी में छपकी उंगलियाँ | और बार-बार पानी में छपकी उंगलियाँ | ||
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मिट्टी चढ़ी | मिट्टी चढ़ी | ||
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पुआल पर चढ़ी मिट्टी | पुआल पर चढ़ी मिट्टी | ||
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कहीं पुआल बिल्कुल झँप गया | कहीं पुआल बिल्कुल झँप गया | ||
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कहीं बड़ी मुश्किल से दबा | कहीं बड़ी मुश्किल से दबा | ||
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कहीं बिल्कुल बाहर झाँकता | कहीं बिल्कुल बाहर झाँकता | ||
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पुआल पर चढ़ी मिट्टी | पुआल पर चढ़ी मिट्टी | ||
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जैसे कि उठ रही हो भित्ति | जैसे कि उठ रही हो भित्ति | ||
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और अब साफ़ था सामने कंधा | और अब साफ़ था सामने कंधा | ||
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उभरा वक्षस्थल | उभरा वक्षस्थल | ||
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और थोड़ा झुकी बाहें | और थोड़ा झुकी बाहें | ||
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दृढ़ हथेलियों ने चढ़ाईं | दृढ़ हथेलियों ने चढ़ाईं | ||
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धीरे-धीरे | धीरे-धीरे | ||
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मिट्टी पर मिट्टी की परतें | मिट्टी पर मिट्टी की परतें | ||
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एक-एक कतरा मिट्टी | एक-एक कतरा मिट्टी | ||
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बनती गई वक्ष | बनती गई वक्ष | ||
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कमर | कमर | ||
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जांघ पृथुल | जांघ पृथुल | ||
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बाँह | बाँह | ||
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आँखें | आँखें | ||
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नाक | नाक | ||
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और फिर चढ़ी मिट्टी | और फिर चढ़ी मिट्टी | ||
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शरीर के एक-एक घुमाव को पजाती | शरीर के एक-एक घुमाव को पजाती | ||
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रेशा-रेशा उठाती | रेशा-रेशा उठाती | ||
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एक बार फिर हथेलियाँ घूमीं | एक बार फिर हथेलियाँ घूमीं | ||
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और स्तन उठे गोल | और स्तन उठे गोल | ||
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एक बार फिर सँसरी हथेलियाँ ऊपर से नीचे | एक बार फिर सँसरी हथेलियाँ ऊपर से नीचे | ||
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और दृढ़ हुई जांघ-- | और दृढ़ हुई जांघ-- | ||
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क्षण भर पहले तक जो थी मिट्टी | क्षण भर पहले तक जो थी मिट्टी | ||
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बन गई देखते-देखते सुडौल देह | बन गई देखते-देखते सुडौल देह | ||
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और अब खड़ी है सामने | और अब खड़ी है सामने | ||
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सृष्टि के सारे घुमाव भरे | सृष्टि के सारे घुमाव भरे | ||
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शुरू में कुछ भी नहीं था | शुरू में कुछ भी नहीं था | ||
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थी बस मिट्टी | थी बस मिट्टी | ||
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पानी पुआल | पानी पुआल | ||
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और खपच्चियाँ पटरे | और खपच्चियाँ पटरे | ||
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शुरू में कुछ भी नहीं था। | शुरू में कुछ भी नहीं था। | ||
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12:44, 5 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
शुरू में कुछ भी नहीं था
थी बस मिट्टी
पानी
पुआल
और पटरे-खपच्चियाँ
काठ के चौड़े पटरे पर
दो-तीन खपच्चियाँ ठोंकी गईं
फिर चारों ओर लपेटा गया
खाली पुआल
कहीं ज़्यादा कहीं कम
कहीं कुछ कसा कहीं जरा ढीला
और लगा जैसे खड़ा हो आदमी का धड़
कुछ-कुछ मोथे की जड़-सा ऊबड़-खाबड़
गूंधी गई काली मिट्टी
मिट्टी का ही कुछ बना लेप
और बार-बार पानी में छपकी उंगलियाँ
मिट्टी चढ़ी
पुआल पर चढ़ी मिट्टी
कहीं पुआल बिल्कुल झँप गया
कहीं बड़ी मुश्किल से दबा
कहीं बिल्कुल बाहर झाँकता
पुआल पर चढ़ी मिट्टी
जैसे कि उठ रही हो भित्ति
और अब साफ़ था सामने कंधा
उभरा वक्षस्थल
और थोड़ा झुकी बाहें
दृढ़ हथेलियों ने चढ़ाईं
धीरे-धीरे
मिट्टी पर मिट्टी की परतें
एक-एक कतरा मिट्टी
बनती गई वक्ष
कमर
जांघ पृथुल
बाँह
आँखें
नाक
और फिर चढ़ी मिट्टी
शरीर के एक-एक घुमाव को पजाती
रेशा-रेशा उठाती
एक बार फिर हथेलियाँ घूमीं
और स्तन उठे गोल
एक बार फिर सँसरी हथेलियाँ ऊपर से नीचे
और दृढ़ हुई जांघ--
क्षण भर पहले तक जो थी मिट्टी
बन गई देखते-देखते सुडौल देह
और अब खड़ी है सामने
सृष्टि के सारे घुमाव भरे
शुरू में कुछ भी नहीं था
थी बस मिट्टी
पानी पुआल
और खपच्चियाँ पटरे
शुरू में कुछ भी नहीं था।