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20:58, 20 सितम्बर 2008 के समय का अवतरण

सुनता रहता हूं
किसी का मार्मिक रूदन
किसी का दिल दहला देने वाला विलाप
चुपचाप

निकाल न पाया मैं
कोई क़ीमती सामान
अपनी जान बचाने की ललक
या जान देने की जल्दबाज़ी में

मर चुके होंगे सब
कुछ भी बचा न होगा
जिसे निकाला जा सके
अपनी आत्मा को क्षति पहुंचाए बिना
और क्यों उठाया जाए यह जोखिम भी
जब मैं हूं ही नहीं
न अपने लिए
न अपनाें के लिए

लेकिन कभी-कभी
जीवन की लम्बी रेल के
किसी दुर्धटनाग्रस्त डिब्बे से
उठती हुई आवाजें क़हती हैं
मैं छोड़ आया हूं ख़ुद को
टूटी हुई फ़िश प्लेटों
और उखड़ी हुई पटरियों के बीच
किसी असमंजस में
वर्षों पहले !