|संग्रह=अंकित होने दो / अजित कुमार
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अपने सरस, उदार ह्र्दय को
जितना भी सम्भव था , उतना उसने दुहा,
निचोड़ा
सत्व खींच लेने पर भी
जो शेष बचा होगा- वह भी ले लिया,
नहीं कुछ छोड़ा ,
फिर उस शुष्क ह्र्दय को उसने व्यर्थ मानकर
रिक्त उपेक्षा, तिक्त व्यथा से
तोड़ा और मरोड़ा
जो टपका वह लहू नहीं था…
रस की धारा थी, अमृत था,
जिसने क्षत-विक्षत घावों को भरा और
टूटे भावों को जोड़ा ।
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