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"एक ही छत / सुरंगमा यादव" के अवतरणों में अंतर

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56
+
67
कुहू के बोल
+
साँसों की पूँजी
दादुर क्या समझें
+
बन्द न कर सकी
इनका मोल।
+
कोई तिजोरी।
57
+
68
झील में चाँद
+
बजती रही
उमस भरी रात
+
समय सरगम
नहाने आया।
+
अबाध क्रम।
58
+
69
माटी है एक
+
शब्द दो-चार
एक ही कुम्भकार
+
प्रकट कर देते
नाना आकार।
+
भाव-विचार ।
59
+
70
एक ही ज्योति
+
भीड़ है बड़ी
हर घट भीतर
+
मानवता की कमी
कैसा अंतर !
+
फिर भी पड़ी ।
60
+
71
कहे प्रकृति
+
सत्य अटल
‘स्व’ और ‘पर’ पर
+
मिलता कर्मफल
हो समदृष्टि।
+
आज या कल।
61
+
72
मेघ कहार
+
पाषाण जैसा
दूर देश से लाया
+
मानव मन हुआ
वर्षा बहार।
+
आँसू न दया।
62
+
73
नित नवीन
+
श्रमिक भाग्य
प्रकृति की सुषमा
+
श्रम की पूँजी हाथ
नहीं उपमा।
+
बारहों मास।
63
+
74
आँचल हरा
+
उजड़े बाग
ढूँढ़ती वसुंधरा
+
प्रदूषित नदियाँ
कहीं खो गया।
+
मानव जाग।
64
+
75
थक के सोया
+
करे उजाड़
दिवस शिशु सम
+
अहंकार की बाढ़
साँझ होते ही
+
रिश्तों  का गाँव
65
+
76
मौन हो गये
+
वर्षा की झड़ी
ये विहग वाचाल
+
मजदूर के घर
निशीथ काल।
+
ठण्डी सिगड़ी।
66
+
77
 
'''एक ही छत'''
 
'''एक ही छत'''
 
कमरों की तरह
 
कमरों की तरह
 
बँटे हैं मन
 
बँटे हैं मन
 
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00:57, 19 जनवरी 2021 के समय का अवतरण

67
साँसों की पूँजी
बन्द न कर सकी
कोई तिजोरी।
68
बजती रही
समय सरगम
अबाध क्रम।
69
शब्द दो-चार
प्रकट कर देते
भाव-विचार ।
70
भीड़ है बड़ी
मानवता की कमी
फिर भी पड़ी ।
71
सत्य अटल
मिलता कर्मफल
आज या कल।
72
पाषाण जैसा
मानव मन हुआ
आँसू न दया।
73
श्रमिक भाग्य
श्रम की पूँजी हाथ
बारहों मास।
74
उजड़े बाग
प्रदूषित नदियाँ
मानव जाग।
75
करे उजाड़
अहंकार की बाढ़
रिश्तों का गाँव ।
76
वर्षा की झड़ी
मजदूर के घर
ठण्डी सिगड़ी।
77
एक ही छत
कमरों की तरह
बँटे हैं मन