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"विशाल काया में / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर

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क्रोधित दानवों जैसी बसें घरघराती है
 
क्रोधित दानवों जैसी बसें घरघराती है
 
भीड़ें हरहरा कर टूटती है उनपे ।
 
भीड़ें हरहरा कर टूटती है उनपे ।

21:10, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

क्रोधित दानवों जैसी बसें घरघराती है
भीड़ें हरहरा कर टूटती है उनपे ।
कंडक्टर दहाड़ते हैं—
हटो, हटो, जगह नहीं ।

हू हू ऊ, अर्र रर्र रर…
वातावरण में तरह-तरह की अनंत ध्वनियाँ, और
हवा में डीजल की गंध घुली-मिली हुई
काला रंग उसका अंगनाओं की वेणियों पर घिरा ।

छायाचित्रों-सी एक दूसरे में गुँथी—
बनी, अधबनी, बनती हुई बिल्डिंगों का जाल,
गिरते हुए घर, गिरनेवाली बैरकें, अधगिरे खँडहर ।
चलते चले जाने की संभावनाओं के खुले द्वारों-सी
सड़कें,
चौराहे,चौराहों से फूटती अनेक और-और राहें
जिन पर दूर-दूर-दूर तक लोगों के हजूम फैले हैं ।

और जगह-ब-जगह मक़बरे—सूने, उदास, पुराने ।
दूकानें भी छोटी-बड़ी, चमकीली, रोबीली, हर तरह की ।
लजीली या सजीली स्त्रियों के तमाम नख़रे ।
शाम का अख़बार बेचने के बहाने भीख माँगते-से छोकरे ।
इस नगर की विशाल, बेढंगी, अपार काया में
अनगिनत मुख हैं,
पैर हैं असंख्य और नेत्र भी संख्यातीत

इसी में परन्तु ।
एक नन्हा-स ह्रदय भी हैं ।
और वह मेरा घर है ।

घर है और वहाँ मेरी पत्नी है,
साथ ही बहन और उसका पति : मेरा पुराना दोस्त ।
बहुतेरी चिट्ठियाँ, अनेक खबरें
जो मेरे लिए सुबह के अखबार से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं ।
माँ का पत्र कि मेरे बिना उसका जी नहीं लगता,
भाई का—जिसमें बना है मेरा कार्टून ।

सुबह आधी पढकर छोड़ी हुई कहानी
सफ़ेद दूध-जैसी चादर बिछी चारपाई ।
पीला शंखनुमा फूलदान ।
    (वह कोई ढपोरशंख नहीं,
दिया है उसने मुझे उतने-से कहीं ज़्यादा
जितना मैंने उससे कभी चाहा है ।)

और फूलदान में उगा : अपने नाम
को सार्थक करता मनी-प्लांट…
उसकी मोहक पत्तियाँ—
(जिन पर कितने ही हरे नोट न्योछावर हो सकते हैं
क्योंकि)
वे हरी ही नहीं, भरी भी हैं । और
मेरे अजन्मे शिशु की नन्हीं-नन्हीं
हथेलियों की छवि मुझे दर्शाती हैं ।