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"इतने आरोप न थोपो / जगदीश व्योम" के अवतरणों में अंतर

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[[ डॉ॰ जगदीश व्योम ]]
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इतने आरोप न थोपो
 
इतने आरोप न थोपो
 
 
मन बागी हो जाए
 
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मन बागी हो जाए,
 
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वैरागी हो जाए
 
वैरागी हो जाए
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इतने आरोप न थोपो...
  
इतने आरोप न थोपो.......
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यदि बाँच सको तो बाँचो
 
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यदि बांच सको तो बांचो
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मेरे अंतस की पीड़ा
 
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जीवन हो गया तरंग रहित
 
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बस पाषाणी क्रीड़ा
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मन की अनुगूँज गूँज बन-बनकर
 
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मन की अनुगूंज गूंज बन-बनकर
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जब अकुलाती है
 
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शब्दों की लहर-लहर लहराकर
शब्दों की लहर लहर लहराकर
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तपन बुझाती है
 
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ये चिनगारी फिर से न मचलकर
 
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आगी हो जाए
 
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मन बागी हो जाए
 
मन बागी हो जाए
 
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इतने आरोप न थोपो... !!
इतने आरोप न थोपो.......... !!
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खुद खाते हो पर औरों पर
 
खुद खाते हो पर औरों पर
 
 
आरोप लगाते हो
 
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सिक्कों में तुम ईमान-धरम के
 
सिक्कों में तुम ईमान-धरम के
 
 
संग बिक जाते हो
 
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आरोपों की जीवन में जब-जब
 
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हद हो जाती है
 
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परिचय की गाँठ पिघलकर
परिचय की गांठ पिघलकर
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आँसू बन जाती है
 
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नीरस जीवन मुँह मोड़ न अब
आंसू बन जाती है
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नीरस जीवन मुंह मोड़ न अब
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बैरागी हो जाए
 
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मन बागी हो जाए
 
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इतने आरोप न थोपो... !!
इतने आरोप न थोपो......... !!
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आरोपों की विपरीत दिशा में
 
आरोपों की विपरीत दिशा में
 
 
चलना मुझे सुहाता
 
चलना मुझे सुहाता
 
 
सपने में भी है बिना रीढ़ का
 
सपने में भी है बिना रीढ़ का
 
 
मीत न मुझको भाता
 
मीत न मुझको भाता
 
 
आरोपों का विष पीकर ही तो
 
आरोपों का विष पीकर ही तो
 
 
मीरा घर से निकली
 
मीरा घर से निकली
 
 
लेखनी निराला की आरोपी
 
लेखनी निराला की आरोपी
 
 
गरल पान कर मचली
 
गरल पान कर मचली
 
 
ये दग्ध हृदय वेदनापथी का
 
ये दग्ध हृदय वेदनापथी का
 
 
सहभागी हो जाए
 
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मन बागी हो जाए
 
मन बागी हो जाए
 
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इतने आरोप न थोपो ... !!
इतने आरोप न थोपो ......... !!
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क्यों दिए पंख जब उड़ने पर
 
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लगवानी थी पाबंदी
 
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क्यों रूप वहाँ दे दिया, जहाँ
क्यों रूप वहां दे दिया जहां
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बस्ती की बस्ती अंधी
 
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जो तर्क बुद्धि से दूर बने रह
 
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करते जीवन-क्रीड़ा
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वे क्या जाने सुकरातों की
 
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कैसी होती है पीड़ा
 
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जीवन्त-बुद्धि वेदना-पूत की
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अनुरागी हो जाए
 
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मन बागी हो जाए
 
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इतने आरोप न थोपो... !!
  
इतने आरोप न थोपो....... !!
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-डॅा. जगदीश व्योम
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-डॉ॰ जगदीश व्योम
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10:52, 30 नवम्बर 2023 के समय का अवतरण


इतने आरोप न थोपो
मन बागी हो जाए
मन बागी हो जाए,
वैरागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो...

यदि बाँच सको तो बाँचो
मेरे अंतस की पीड़ा
जीवन हो गया तरंग रहित
बस पाषाणी क्रीड़ा
मन की अनुगूँज गूँज बन-बनकर
जब अकुलाती है
शब्दों की लहर-लहर लहराकर
तपन बुझाती है
ये चिनगारी फिर से न मचलकर
आगी हो जाए
मन बागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो... !!

खुद खाते हो पर औरों पर
आरोप लगाते हो
सिक्कों में तुम ईमान-धरम के
संग बिक जाते हो
आरोपों की जीवन में जब-जब
हद हो जाती है
परिचय की गाँठ पिघलकर
आँसू बन जाती है
नीरस जीवन मुँह मोड़ न अब
बैरागी हो जाए
मन बागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो... !!

आरोपों की विपरीत दिशा में
चलना मुझे सुहाता
सपने में भी है बिना रीढ़ का
मीत न मुझको भाता
आरोपों का विष पीकर ही तो
मीरा घर से निकली
लेखनी निराला की आरोपी
गरल पान कर मचली
ये दग्ध हृदय वेदनापथी का
सहभागी हो जाए
मन बागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो ... !!

क्यों दिए पंख जब उड़ने पर
लगवानी थी पाबंदी
क्यों रूप वहाँ दे दिया, जहाँ
बस्ती की बस्ती अंधी
जो तर्क बुद्धि से दूर बने रह
करते जीवन-क्रीड़ा
वे क्या जाने सुकरातों की
कैसी होती है पीड़ा
जीवन्त-बुद्धि वेदना-पूत की
अनुरागी हो जाए
मन बागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो... !!

-डॅा. जगदीश व्योम