"यात्रा / सुधा गुप्ता" के अवतरणों में अंतर
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= सुधा गुप्ता }} <poem> </poem>' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
}} | }} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | + | मैंने कहा : | |
+ | नाव खोल दो | ||
+ | सूरज पीठ पर आ चुका है | ||
+ | और | ||
+ | अभी काफ़ी दूर जाना है ।' | ||
+ | कहीं | ||
+ | कोई नहीं था | ||
+ | सिर्फ़ | ||
+ | हज़ारों नन्ही लहरियाँ | ||
+ | आडी-तिरछी | ||
+ | हँसती-खिलखिलाती | ||
+ | एक दूसरे को धकियाती-गृदगुदाती | ||
+ | आपस में फुसफुती | ||
+ | पूछती रहीं सवाल-- | ||
+ | किससे कहा ? किससे कहा ? ? किससे कहा ? ? ? | ||
+ | ऊपर है | ||
+ | गहरी नीली हँसी बिखेरता | ||
+ | खुला -खुला आकाश था | ||
+ | और पीठ-पीछे है | ||
+ | चकाचौंध फैलाता शरारती सूरज | ||
+ | किसी भी क्षण / आँख-मिचौनी के खेल में | ||
+ | मुझे | ||
+ | गच्चा देकर छिप जाने वाला था | ||
+ | दोनों ने मिलकर | ||
+ | मेरी हँसी उड़ानी शुरू की | ||
+ | किससे कहा ? किससे कहा ? किससे कहा ! | ||
+ | हाँ सच | ||
+ | कहीं , कोई भी तो नहीं था | ||
+ | न कोई मल्लाह / न कोई साथी मुसाफ़िर | ||
+ | दूर-दूर तक | ||
+ | कहीं कोई पाखी तक नहीं | ||
+ | सिर्फ़ | ||
+ | जल था | ||
+ | एक नौका ओर | ||
+ | एक मैं / अकेली मुसाफ़िर | ||
+ | में /खुद मल्लाह थी / ख़ुद पतरवार | ||
+ | खुद मझे ही तो नाव खोलनी थी! | ||
+ | झेंप मिटाने को | ||
+ | मैं | ||
+ | लहरियों, आकाश और सूरज | ||
+ | की हँसी में... मल | ||
+ | शामिल हो गई : हाँ, सच तो; | ||
+ | किससे कहा ? किससे कहा ? किससे कहा ?- | ||
+ | नाव तो खुद मुझे ही खोलनी है | ||
+ | मैं तो | ||
+ | बिल्कुल अकेली सफ़र पर निकली हूँ! | ||
+ | लेकिन | ||
+ | अब | ||
+ | लहरों/आकाश और सूरज | ||
+ | का/मिजाज़ बदल गया था | ||
+ | ‘तुम अकेली कहाँ हो? | ||
+ | हम जो तुम्हारे साथ हैं।’ | ||
+ | आकाश ने / भरी-पूरी नीली मुस्कान | ||
+ | फैला दी- | ||
+ | ‘मैं सदा से यहाँ ऐसे ही हूँ | ||
+ | और ऐसे ही रहूँगा... | ||
+ | .. तुम अकेली हरगिज़ नहीं हो' | ||
+ | न सूरज खिलखिलाया-- | ||
+ | आखिर तुम किससे डरती हो. | ||
+ | अँधेरे से? तय रा | ||
+ | . पगली, | ||
+ | हर किसी का सूरज उसकी अपनी | ||
+ | मृट्ठी में बन्द होता है... | ||
+ | जिससे | ||
+ | वह जब चाहे / उजाला कर ले / जब भी तुम | ||
+ | मुझे खोजोगी / में ज़रूर मिलूँगा | ||
+ | छोड़ो इस डर को - | ||
+ | और नाव खोल दो !” | ||
+ | -मैंने नाव खोल दी. | ||
+ | सूरज अब तक मेरी पीठ के बहुत नीचे | ||
+ | जा चुका था | ||
+ | गुम-सुम सायों की चादर फैलने लगी थी | ||
+ | पर | ||
+ | अब | ||
+ | मुझे ज़रा भी डर नहीं लग रहा था | ||
+ | लहरियाँ मेरे साथ थीं | ||
+ | आकाश का छाता तना था | ||
+ | और | ||
+ | अपने सूरज को ढूँढने | ||
+ | अगली | ||
+ | यात्रा पर | ||
+ | निकल पड़ी थी | ||
</poem> | </poem> |
19:59, 24 अप्रैल 2021 के समय का अवतरण
मैंने कहा :
नाव खोल दो
सूरज पीठ पर आ चुका है
और
अभी काफ़ी दूर जाना है ।'
कहीं
कोई नहीं था
सिर्फ़
हज़ारों नन्ही लहरियाँ
आडी-तिरछी
हँसती-खिलखिलाती
एक दूसरे को धकियाती-गृदगुदाती
आपस में फुसफुती
पूछती रहीं सवाल--
किससे कहा ? किससे कहा ? ? किससे कहा ? ? ?
ऊपर है
गहरी नीली हँसी बिखेरता
खुला -खुला आकाश था
और पीठ-पीछे है
चकाचौंध फैलाता शरारती सूरज
किसी भी क्षण / आँख-मिचौनी के खेल में
मुझे
गच्चा देकर छिप जाने वाला था
दोनों ने मिलकर
मेरी हँसी उड़ानी शुरू की
किससे कहा ? किससे कहा ? किससे कहा !
हाँ सच
कहीं , कोई भी तो नहीं था
न कोई मल्लाह / न कोई साथी मुसाफ़िर
दूर-दूर तक
कहीं कोई पाखी तक नहीं
सिर्फ़
जल था
एक नौका ओर
एक मैं / अकेली मुसाफ़िर
में /खुद मल्लाह थी / ख़ुद पतरवार
खुद मझे ही तो नाव खोलनी थी!
झेंप मिटाने को
मैं
लहरियों, आकाश और सूरज
की हँसी में... मल
शामिल हो गई : हाँ, सच तो;
किससे कहा ? किससे कहा ? किससे कहा ?-
नाव तो खुद मुझे ही खोलनी है
मैं तो
बिल्कुल अकेली सफ़र पर निकली हूँ!
लेकिन
अब
लहरों/आकाश और सूरज
का/मिजाज़ बदल गया था
‘तुम अकेली कहाँ हो?
हम जो तुम्हारे साथ हैं।’
आकाश ने / भरी-पूरी नीली मुस्कान
फैला दी-
‘मैं सदा से यहाँ ऐसे ही हूँ
और ऐसे ही रहूँगा...
.. तुम अकेली हरगिज़ नहीं हो'
न सूरज खिलखिलाया--
आखिर तुम किससे डरती हो.
अँधेरे से? तय रा
. पगली,
हर किसी का सूरज उसकी अपनी
मृट्ठी में बन्द होता है...
जिससे
वह जब चाहे / उजाला कर ले / जब भी तुम
मुझे खोजोगी / में ज़रूर मिलूँगा
छोड़ो इस डर को -
और नाव खोल दो !”
-मैंने नाव खोल दी.
सूरज अब तक मेरी पीठ के बहुत नीचे
जा चुका था
गुम-सुम सायों की चादर फैलने लगी थी
पर
अब
मुझे ज़रा भी डर नहीं लग रहा था
लहरियाँ मेरे साथ थीं
आकाश का छाता तना था
और
अपने सूरज को ढूँढने
अगली
यात्रा पर
निकल पड़ी थी