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"पिता / रश्मि विभा त्रिपाठी" के अवतरणों में अंतर

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पिता वास्तव में इन्द्रधनुष हैं,
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हमारे जीवन का हर रंग उन्हीं से है
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मन की हर एक उमंग उन्हीं से है
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पिता आकाश जैसे, हम असीम विस्तार पाते हैं
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पिता धरती- से, हर भार उठाते तो भी मुस्काते हैं
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पिता वृक्ष -से,  बाहों की शाखाओं पर झूला झुलाते हैं
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काँधों के वातायन से इन्द्र की अलका दिखाते हैं
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पिता अमृत जैसे हैं जो तृप्ति अमर करते हैं
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पिता कुसुम- से हैं मन में सुवास भरते हैं
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चुभें न शूल, इस हेतु पथ में बिखरते हैं
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पिता पहाड़ से- भी, भारी धीरज धरते हैं
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पिता सूर्य- से, थोड़ी सी धूप झलकाते हैं
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अच्छा- बुरा संसार का स्वरूप दिखलाते हैं
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पिता पावस- से नैनों में नीर भर लाते
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चढ़ता आसाढ़, प्रीति- बूँद बरसाते
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पिता शिशिर- से जेठ की अकड़ मिटाते
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पिता ऋतुराज, मधुमय बसंत ले आते
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पिता जुगनू- से, निशि में उजियार दिखाते हैं
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पिता गुरु- से सब शिष्टाचार सिखाते हैं
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पिता दीप- से, रोज तिमिर से लड़ते हैं
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हैं दुर्वासा- से पर यदा-कदा बिगड़ते हैं
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पिता माँ- से, मातृत्व खूब लुटाते हैं
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माली- से, सुख-समृद्धि- पौधा उगाते हैं
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पिता ईश्वर- से भी, हर बाधा- विघ्न हरते हैं
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पिता माणिक-।से हैं जिन्हें पा हम निखरते हैं
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वे जौहरी- से, बालक का व्यक्तित्व परखते हैं
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मैं शेष क्या कहूँ कि शब्द सीमित हैं
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एक पिता अपने भीतर कितने अनूठे रंग रखते हैं।
  
 
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18:24, 26 फ़रवरी 2022 के समय का अवतरण

पिता वास्तव में इन्द्रधनुष हैं,
हमारे जीवन का हर रंग उन्हीं से है
प्रत्येक उपेक्षा, आशा उनसे ही
मन की हर एक उमंग उन्हीं से है

पिता आकाश जैसे, हम असीम विस्तार पाते हैं
पिता धरती- से, हर भार उठाते तो भी मुस्काते हैं
पिता वृक्ष -से, बाहों की शाखाओं पर झूला झुलाते हैं
काँधों के वातायन से इन्द्र की अलका दिखाते हैं
पिता अमृत जैसे हैं जो तृप्ति अमर करते हैं
पिता कुसुम- से हैं मन में सुवास भरते हैं
चुभें न शूल, इस हेतु पथ में बिखरते हैं
पिता पहाड़ से- भी, भारी धीरज धरते हैं

पिता सूर्य- से, थोड़ी सी धूप झलकाते हैं
अच्छा- बुरा संसार का स्वरूप दिखलाते हैं
पिता पावस- से नैनों में नीर भर लाते
चढ़ता आसाढ़, प्रीति- बूँद बरसाते
पिता शिशिर- से जेठ की अकड़ मिटाते
पिता ऋतुराज, मधुमय बसंत ले आते
पिता जुगनू- से, निशि में उजियार दिखाते हैं
पिता गुरु- से सब शिष्टाचार सिखाते हैं
पिता दीप- से, रोज तिमिर से लड़ते हैं
हैं दुर्वासा- से पर यदा-कदा बिगड़ते हैं
पिता माँ- से, मातृत्व खूब लुटाते हैं
माली- से, सुख-समृद्धि- पौधा उगाते हैं
पिता ईश्वर- से भी, हर बाधा- विघ्न हरते हैं
पिता माणिक-।से हैं जिन्हें पा हम निखरते हैं
वे जौहरी- से, बालक का व्यक्तित्व परखते हैं
मैं शेष क्या कहूँ कि शब्द सीमित हैं
एक पिता अपने भीतर कितने अनूठे रंग रखते हैं।