भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अलविदा / अपअललोन ग्रिगोरिइफ़ / वरयाम सिंह" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अपअललोन ग्रिगोरिइफ़ |अनुवादक=वर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=अपअललोन ग्रिगोरिइफ़
 
|रचनाकार=अपअललोन ग्रिगोरिइफ़
 
|अनुवादक=वरयाम सिंह
 
|अनुवादक=वरयाम सिंह
|संग्रह=
+
|संग्रह=शब्द रुग्ण  आत्मा के / अपअललोन ग्रिगोरिइफ़ / वरयाम सिंह
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
पंक्ति 9: पंक्ति 9:
 
अलविदा, अलविदा, तुमसे भी, ओ मेरी सुबह,
 
अलविदा, अलविदा, तुमसे भी, ओ मेरी सुबह,
 
अलविदा, ओ मेरी मातृभूमि के प्रिय पुष्प,
 
अलविदा, ओ मेरी मातृभूमि के प्रिय पुष्प,
तुम्ही हो प्यार रहा मीठा और  कड़वा जिससे,
+
तुम्ही हो, प्यार रहा मीठा और  कड़वा जिससे,
 
प्यार किया जिसे शेष बची ताक़त से ।  
 
प्यार किया जिसे शेष बची ताक़त से ।  
  
पंक्ति 24: पंक्ति 24:
 
अलविदा, अलविदा, स्याह पड़ गया है पानी,
 
अलविदा, अलविदा, स्याह पड़ गया है पानी,
 
दिल टूट चुका है बहुत भीतर से ...  
 
दिल टूट चुका है बहुत भीतर से ...  
तैरता जा हूँ मैं दूर, बहुत दूर
+
तैरता जा रहा हूँ मैं दूर, बहुत दूर
अनदेखे शब्दों के पीछे, आज़ादी के शब्दों के पीछे ।  
+
अनदेखे शब्दों के पीछे, आज़ादी के शब्दों के पीछे ।    
 
+
 
+
  
 
जून 1858, फ़्लोरेंस  
 
जून 1858, फ़्लोरेंस  
पंक्ति 35: पंक्ति 33:
 
'''और लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए'''  
 
'''और लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए'''  
 
                     Аполло́н  Григо́рьев
 
                     Аполло́н  Григо́рьев
                            Молитва
+
            Прощай и ты, последняя зорька
 +
 
 +
Прощай и ты, последняя зорька,
 +
Цветок моей родины милой,
 +
Кого так сладко, кого так горько
 +
Любил я последнею силой…
  
О Боже, о Боже, хоть луч благодати Твоей,
+
Прости-прощай ты и лихом не вспомни
Хоть искрой любви освети мою душу больную;
+
Ни снов тех ужасных, ни сказок,
Как в бездне заглохшей, на дне всё волнуется в ней,
+
Ни этих слез, что было дано мне
Остатки мучительных, жадных, палящих страстей...
+
Порой исторгнуть из глазок.
Отец, я безумно, я страшно, я смертно тоскую!
+
  
Не вся еще жизнь истощилась в бесплодной борьбе:
+
Прости-прощай ты – в краю изгнанья
Последние силы бунтуют, не зная покою,
+
Я буду, как сладким ядом,
И рвутся из мрака тюрьмы разрешиться в Тебе!
+
Питаться словом последним прощанья,
О, внемли же их стону, Спаситель! внемли их мольбе,
+
Унылым и долгим взглядом.
Зане я истерзан их страшной, их смертной тоскою.
+
  
Источник покоя и мира, - страданий пошли им скорей,
+
Прости-прощай ты, стемнели воды…
Дай жизни и света, дай зла и добра разделенья -
+
Сердце разбито глубоко…
Освети, оживи и сожги их любовью своей,
+
За странным словом, за сном свободы
Дай мира, о Боже, дай жизни и дай истощенья!
+
Плыву я далеко, далеко…
  
1845
+
(Июнь 1858)
 +
(Флоренция)
 
</poem>
 
</poem>

18:52, 6 जुलाई 2022 के समय का अवतरण

अलविदा, अलविदा, तुमसे भी, ओ मेरी सुबह,
अलविदा, ओ मेरी मातृभूमि के प्रिय पुष्प,
तुम्ही हो, प्यार रहा मीठा और कड़वा जिससे,
प्यार किया जिसे शेष बची ताक़त से ।

अलविदा, कुछ बुरा याद नहीं करना तुम,
याद न करना न पागल सपनों को, न कहानी-क़िस्सों को,
न इन आँसुओं को जिन्हें कभी-कभी
बहाना पड़ता रहा आँखों को ॥

अलविदा, देश से दूर जैसे निष्कासन में,
मीठे ज़हर की तरह ग्रहण करूँगा
विदाई के अन्तिम शब्दों को
उदास, देर तक निहारती आँखों को ।

अलविदा, अलविदा, स्याह पड़ गया है पानी,
दिल टूट चुका है बहुत भीतर से ...
तैरता जा रहा हूँ मैं दूर, बहुत दूर
अनदेखे शब्दों के पीछे, आज़ादी के शब्दों के पीछे ।

जून 1858, फ़्लोरेंस

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह

और लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
                    Аполло́н Григо́рьев
             Прощай и ты, последняя зорька

Прощай и ты, последняя зорька,
Цветок моей родины милой,
Кого так сладко, кого так горько
Любил я последнею силой…

Прости-прощай ты и лихом не вспомни
Ни снов тех ужасных, ни сказок,
Ни этих слез, что было дано мне
Порой исторгнуть из глазок.

Прости-прощай ты – в краю изгнанья
Я буду, как сладким ядом,
Питаться словом последним прощанья,
Унылым и долгим взглядом.

Прости-прощай ты, стемнели воды…
Сердце разбито глубоко…
За странным словом, за сном свободы
Плыву я далеко, далеко…

(Июнь 1858)
(Флоренция)