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"प्रतिकूल मौसम / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर

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कूप तरसते नीर को, मिटती है कब प्यास ।
 
कूप तरसते नीर को, मिटती है कब प्यास ।
 
सूखी हैं नदियाँ सभी, तट भी हुए उदास ॥
 
सूखी हैं नदियाँ सभी, तट भी हुए उदास ॥
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लिख-लिख पाती भेजता, यह मौसम प्रतिकूल ।
 
लिख-लिख पाती भेजता, यह मौसम प्रतिकूल ।
 
कंधे चढ़कर चल रही, पथ की अंधी धूल॥
 
कंधे चढ़कर चल रही, पथ की अंधी धूल॥
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टँगी हवा है नीम पर, झुलस उठी है छाँव।
 
टँगी हवा है नीम पर, झुलस उठी है छाँव।
 
सामन्ती दोपहर में, क़ैदी है हर गाँव ॥
 
सामन्ती दोपहर में, क़ैदी है हर गाँव ॥
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आँखों में चुभने लगी, किरच-किरच बन धूप ।
 
आँखों में चुभने लगी, किरच-किरच बन धूप ।
 
सूनी-सूनी माँग-सा,  लगता  है अब रूप ॥
 
सूनी-सूनी माँग-सा,  लगता  है अब रूप ॥
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सबको अपनी है पड़ी, बन्द हैं मन के द्वार।
 
सबको अपनी है पड़ी, बन्द हैं मन के द्वार।
 
रह-रहकर चुभने लगी, सुधियों -पगी कटार॥
 
रह-रहकर चुभने लगी, सुधियों -पगी कटार॥
 
'''-0-[8-9-85: वीणा अक्तुबर-85]'''
 
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10:44, 8 अगस्त 2023 के समय का अवतरण

219
कूप तरसते नीर को, मिटती है कब प्यास ।
सूखी हैं नदियाँ सभी, तट भी हुए उदास ॥
220
लिख-लिख पाती भेजता, यह मौसम प्रतिकूल ।
कंधे चढ़कर चल रही, पथ की अंधी धूल॥
221
टँगी हवा है नीम पर, झुलस उठी है छाँव।
सामन्ती दोपहर में, क़ैदी है हर गाँव ॥
222
आँखों में चुभने लगी, किरच-किरच बन धूप ।
सूनी-सूनी माँग-सा, लगता है अब रूप ॥
223
सबको अपनी है पड़ी, बन्द हैं मन के द्वार।
रह-रहकर चुभने लगी, सुधियों -पगी कटार॥
-0-[8-9-85: वीणा अक्तुबर-85]