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"लिपटी रहो / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर

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यूँ ही तुम लिपटी रहो सुगंध की तरह
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यूँ ही तुम लिपटी रहो  
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सुगंध की तरह।
  
हर साँस में घुलते रहें ज्वालामुखी
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हर साँस में घुलते रहें  
मधु डाल -सी देह प्राणों पर झुकी
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ज्वालामुखी
नवनीत कंधों पर नज़र हो जब टिकी
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मधु डाल -सी देह  
बाहुपाश में बंद जाओ छन्द की तरह।
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प्राणों पर झुकी
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नवनीत कंधों पर  
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नज़र हो जब टिकी,
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बाहुपाश में बँध जाओ  
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छन्द की तरह।
  
चूमते हैं पीठ को रेशमी कुंतल
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चूमते हैं पीठ को  
ज्यों नहाती चाँदनी में लहर श्यामल
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रेशमी कुंतल
फिसल रहा है बार- बार तृषित आँचल
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ज्यों नहाती चाँदनी में
दृष्टि से बाँधे रहो अनुबंध की तरह।
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लहर श्यामल
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फिसल रहा है बार-बार  
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तृषित आँचल,
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दृष्टि से बाँधे रहो  
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अनुबंध की तरह।
  
लिखते रहें कथाएँ किसलय- से अधर
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लिखते रहें  
बिछाती रहें मदहोशियाँ नित सेज पर
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कथाएँ, किसलय- से अधर
मौन वाणी, रोम- रोम हो उठें मुखर
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बिछाती रहें  
मन अछूता बाँध लो भुजबन्द की तरह ।
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मदहोशियाँ नित सेज पर
(28-3-86, रसमुग्धा अक्तु-दिस-86)
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मौन वाणी,  
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रोम-रोम हो उठें मुखर
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मन अछूता बाँध लो  
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भुजबन्ध की तरह ।
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04:51, 4 जनवरी 2023 के समय का अवतरण

यूँ ही तुम लिपटी रहो
सुगंध की तरह।

हर साँस में घुलते रहें
ज्वालामुखी
मधु डाल -सी देह
प्राणों पर झुकी
नवनीत कंधों पर
नज़र हो जब टिकी,
बाहुपाश में बँध जाओ
छन्द की तरह।

चूमते हैं पीठ को
रेशमी कुंतल
ज्यों नहाती चाँदनी में
 लहर श्यामल
फिसल रहा है बार-बार
तृषित आँचल,
दृष्टि से बाँधे रहो
अनुबंध की तरह।

लिखते रहें
कथाएँ, किसलय- से अधर
बिछाती रहें
मदहोशियाँ नित सेज पर
मौन वाणी,
रोम-रोम हो उठें मुखर
मन अछूता बाँध लो
भुजबन्ध की तरह ।
-0-(28-3-86, रसमुग्धा अक्तु-दिस-86)