भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"यहाँ आरम्भ / प्रणव कुमार वंद्योपाध्याय" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रणव कुमार वंद्योपाध्याय |अनुव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=प्रणव कुमार वंद्योपाध्याय
 
|रचनाकार=प्रणव कुमार वंद्योपाध्याय
 
|अनुवादक=
 
|अनुवादक=
|संग्रह=
+
|संग्रह=मेघना / प्रणव कुमार वंद्योपाध्याय
 
}}
 
}}
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
पंक्ति 34: पंक्ति 34:
 
कैसे पहचानेगा वह  
 
कैसे पहचानेगा वह  
  
सृष्टि
+
मेरे भीतर के
 +
घुमावदार रास्तों में
 +
अनादि समय
 +
सिकुड़कर बैठा है
 +
निस्संग गड़रिये  की तरह ।
 +
दिखाई तो नहीं देता
 +
लेकिन उसकी आँखों में ही
 +
कहीं होगी
 +
तरन्नुमों वाली रात
 +
नर्तकियों का
 +
झाला के बीच
 +
द्रुत थिरकना
 +
और जलसाघर के
 +
ठीक सामने
 +
असंख्य नदियों का
 +
एक उफनता मुहाना।
 +
कोई
 +
यक़ीन करे, न करे
 +
मैं जानता हूँ
 +
यह सच है ।
 +
 
 +
हज़ार बरस से
 +
मैं चलता तो रहा
 +
लेकिन देखो
 +
मेरे पाँव
 +
एड़ियाँ
 +
और लहूलुहान तलवे
 +
अब
 +
जाने कहाँ
 +
ग़ुम हो गए !
 +
 
 +
कल तक
 +
जहाँ
 +
अरबों मील
 +
फैले रास्ते थे
 +
वहाँ
 +
अब सिर्फ़ शून्य है
 +
सृष्टि के
 +
आदिरहस्य की तरह
 +
जिसमें
 +
प्रतिबिम्बित हो रहा
 +
मेरा खण्डित क़द
 +
और
 +
ज़ख़्म हुई
 +
अतलान्त इच्छाएँ !
 +
 
 +
देखो,
 +
मेरे पास जहाँ आँखें थीं
 +
वहाँ
 +
अब एक
 +
ज्वालामुखी प्रदेश है !
 +
सुनो,
 +
यही है मेरा अन्त
 +
रोशनी के दरवाज़े से
 +
फ़कत गज़ भर पहले !
 +
—— 
 +
२२ अक्तूबर १९८४
 +
ट्रॉंय, न्यूयार्क
 
</poem>
 
</poem>

19:40, 2 सितम्बर 2025 के समय का अवतरण

सड़क-दर-सड़क
हज़ार बरस से
भटकता रहा मैं
चुटकी भर
रोशनी की तलाश में ।
सोचा था
रोशनी मिल जाए
या रोशनी के बजाए
उसे
महसूस करने लायक
थोड़ी सी आँच ही सही
तो आहिस्ते-आहिस्ते
अपने भीतर
उतरकर देख पाऊँगा
आदिसृष्टि का
अथाह अन्धेरा
और उसमें
दिगन्त तक गुम्फित
एक सद्यभूमिष्ठ
शिशु की चीख़ ।
शब्द तो, ख़ैर, सुना
लेकिन नहीं जाना था तब
जिसे रोशनी का
तज़ुर्बा नहीं
अन्धेरे को
कैसे पहचानेगा वह

मेरे भीतर के
घुमावदार रास्तों में
अनादि समय
सिकुड़कर बैठा है
निस्संग गड़रिये की तरह ।
दिखाई तो नहीं देता
लेकिन उसकी आँखों में ही
कहीं होगी
तरन्नुमों वाली रात
नर्तकियों का
झाला के बीच
द्रुत थिरकना
और जलसाघर के
ठीक सामने
असंख्य नदियों का
एक उफनता मुहाना।
कोई
यक़ीन करे, न करे
मैं जानता हूँ
यह सच है ।

हज़ार बरस से
मैं चलता तो रहा
लेकिन देखो
मेरे पाँव
एड़ियाँ
और लहूलुहान तलवे
अब
जाने कहाँ
ग़ुम हो गए !

कल तक
जहाँ
अरबों मील
फैले रास्ते थे
वहाँ
अब सिर्फ़ शून्य है
सृष्टि के
आदिरहस्य की तरह
जिसमें
प्रतिबिम्बित हो रहा
मेरा खण्डित क़द
और
ज़ख़्म हुई
अतलान्त इच्छाएँ !

देखो,
मेरे पास जहाँ आँखें थीं
वहाँ
अब एक
ज्वालामुखी प्रदेश है !
सुनो,
यही है मेरा अन्त
रोशनी के दरवाज़े से
फ़कत गज़ भर पहले !
 ——
२२ अक्तूबर १९८४
ट्रॉंय, न्यूयार्क