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12:46, 22 नवम्बर 2010 के समय का अवतरण

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दोनों में कभी
रार का कारण नहीं बनी
एक ही तरह की कमी-

'चुप' रहे दोनों
फूल की भाषा में
शहर नापते हुए
रहे इतनी दूर... इतनी दूर
जितनी बिछोह की इच्छा

बाहर का तमाम धुआँ-धक्कड़ और तकरार सहेजे
नहाए रंगों में
एक दूसरे के कूड़े में बीनते हुए उपयोगी चीज

खुले संसार में एक-दूसरे को
समेटते हुए चुम्बनों में
पड़ा रहा उनके बीच एक आदिम आवेश का परदा
यद्यपि वह उतना ही उपस्थित था
जितना 'नहीं' के वर्ण युग्म में 'है'
कई रंग बदलने के बावजूद
रहे इतना पास.... इतना पास
जितना प्रकृति।