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"चंद शेर / फ़ानी बदायूनी" के अवतरणों में अंतर

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देख 'फ़ानी' वेह तेरी तदबीर की मैयत न हो।
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या रब ! तेरी रहमत से मायूस नहीं 'फ़ानी'।
 
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लेकिन तेरी रहमत की ताख़ीर को क्या कहिए।।
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हर मुज़दए-निगाहे-ग़लत जलवा ख़ुदफ़रेब।
 
हर मुज़दए-निगाहे-ग़लत जलवा ख़ुदफ़रेब।
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तजल्लियाते-वहम हैं मुशाहिदाते-आबो-गिल।
 
तजल्लियाते-वहम हैं मुशाहिदाते-आबो-गिल।
 
करिश्मये-हयात है ख़याल, वोह भी ख़वाब का।।
 
करिश्मये-हयात है ख़याल, वोह भी ख़वाब का।।
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एक मुअ़म्मा है समझने का न समझाने का।
 
एक मुअ़म्मा है समझने का न समझाने का।
 
ज़िन्दगी काहे को है? ख़वाब है दीवाने का।।
 
ज़िन्दगी काहे को है? ख़वाब है दीवाने का।।
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इक मर्गे-नागहाँ के ग़मे इन्तज़ार ने।।
 
इक मर्गे-नागहाँ के ग़मे इन्तज़ार ने।।
  
'''शब्दार्थ
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'फ़ानी'को या जुनूँ है या तेरी आरज़ू है।
मैयत= अर्थी; जनाज़ा= शव; दोश पर=कंधे पर; ताख़ीर=देरी, विलम्ब;
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कल नाम लेके तेरा दीवानावार रोया।।
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नाला क्या? हाँ इक धुआँ-सा शामे-हिज्र।
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बिस्तरे-बीमार से उट्ठा किया।।
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आया है बादे-मुद्दत बिछुड़े हुए मिले हैं।
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दिल से लिपट-लिपट कर ग़म बार-बार रोया?
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नाज़ुक है आज शायद, हालत मरीज़े-ग़म की।
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क्या चारागर ने समझा, क्यों बार-बार रोया।।
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ग़म के टहोके कुछ हों बला से, आके जगा तो जाते हैं।
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हम हैं मगर वो नींद के माते जागते ही सो जाते हैं।।
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महबे-तमाशा हूँ मैं या रब! या मदहोशे-तमाशा हूँ।
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उसने कब का फेर लिया मुँह अब किसका मुँह तकता हूँ।।
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गो हस्ती थी ख़्वाबे-परीशाँ नींद कुछ ऎसी गहरी थी।
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चौंक उठे थे हम घबराकर फिर भी आँख न खुलती थी।।
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फ़स्ले-गुल आई,या अजल आई, क्यों दरे ज़िन्दाँ खुलता है?
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क्या कोई वहशी और आ पहुँचा या कोई क़ैदी छूट गया।।
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या कहते थे कुछ कहते, जब उसने कहा-- "कहिए"।
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तो चुप हैं कि क्या कहिए, खुलती है ज़बाँ कोई?
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दैर में या हरम में गुज़रेगी।
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उम्र तेरी ही ग़म में गुज़रेगी।।
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13:53, 5 जुलाई 2009 के समय का अवतरण

देख 'फ़ानी' वोह तेरी तदबीर की मैयत<ref>अर्थी</ref> न हो।
इक जनाज़ा<ref>शव</ref> जा रहा है दोश पर<ref>कंधे पर</ref> तक़दीर के।।

या रब ! तेरी रहमत से मायूस नहीं 'फ़ानी'।
लेकिन तेरी रहमत की ताख़ीर<ref>देरी, विलम्ब</ref> को क्या कहिए।।

हर मुज़दए-निगाहे-ग़लत जलवा ख़ुदफ़रेब।
आलम दलीले गुमरहीए-चश्मोगोश था।।

तजल्लियाते-वहम हैं मुशाहिदाते-आबो-गिल।
करिश्मये-हयात है ख़याल, वोह भी ख़वाब का।।

एक मुअ़म्मा है समझने का न समझाने का।
ज़िन्दगी काहे को है? ख़वाब है दीवाने का।।

है कि 'फ़ानी' नहीं है क्या कहिए।
राज़ है बेनियाज़े-महरमे-राज़।।

हूँ, मगर क्या यह कुछ नहीं मालूम।
मेरी हस्ती है ग़ैब की आवाज़।।

बहला न दिल, न तीरगीये-शामे-ग़म गई।
यह जानता तो आग लगाता न घर को मैं।।

वोह पाये-शौक़ दे कि जहत आश्ना न हो।
पूछूँ न ख़िज़्र से भी कि जाऊँ किधर को मैं।।

याँ मेरे क़दम से है वीराने की आबादी।
वाँ घर में ख़ुदा रक्खे आबाद है वीरानी।।

तामीरे-आशियाँ की हविस का है नाम बर्क़।
जब हमने कोई शाख़ चुनी शाख़ जल गई।।

अपनी तो सारी उम्र ही 'फ़ानी' गुज़ार दी।
इक मर्गे-नागहाँ के ग़मे इन्तज़ार ने।।

'फ़ानी'को या जुनूँ है या तेरी आरज़ू है।
कल नाम लेके तेरा दीवानावार रोया।।

नाला क्या? हाँ इक धुआँ-सा शामे-हिज्र।
बिस्तरे-बीमार से उट्ठा किया।।

आया है बादे-मुद्दत बिछुड़े हुए मिले हैं।
दिल से लिपट-लिपट कर ग़म बार-बार रोया?

नाज़ुक है आज शायद, हालत मरीज़े-ग़म की।
क्या चारागर ने समझा, क्यों बार-बार रोया।।

ग़म के टहोके कुछ हों बला से, आके जगा तो जाते हैं।
हम हैं मगर वो नींद के माते जागते ही सो जाते हैं।।

महबे-तमाशा हूँ मैं या रब! या मदहोशे-तमाशा हूँ।
उसने कब का फेर लिया मुँह अब किसका मुँह तकता हूँ।।

गो हस्ती थी ख़्वाबे-परीशाँ नींद कुछ ऎसी गहरी थी।
चौंक उठे थे हम घबराकर फिर भी आँख न खुलती थी।।

फ़स्ले-गुल आई,या अजल आई, क्यों दरे ज़िन्दाँ खुलता है?
क्या कोई वहशी और आ पहुँचा या कोई क़ैदी छूट गया।।

या कहते थे कुछ कहते, जब उसने कहा-- "कहिए"।
तो चुप हैं कि क्या कहिए, खुलती है ज़बाँ कोई?
 
दैर में या हरम में गुज़रेगी।
उम्र तेरी ही ग़म में गुज़रेगी।।



शब्दार्थ
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