"बेरोज़गार पीढ़ी / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत }} बच्चों के पास काम नहीं वे...) |
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
+ | |||
|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत | |रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत | ||
− | + | |संग्रह=घर एक यात्रा है / श्रीनिवास श्रीकांत | |
}} | }} | ||
+ | <poem> | ||
+ | बेरोज़गार पीढ़ी | ||
बच्चों के पास काम नहीं | बच्चों के पास काम नहीं | ||
− | |||
वे बन गये हैं अब बेरोजगार | वे बन गये हैं अब बेरोजगार | ||
− | |||
सड़क छाप | सड़क छाप | ||
− | |||
पढ़े हैं वे ढेर सारी पोथियाँ | पढ़े हैं वे ढेर सारी पोथियाँ | ||
− | |||
उठाये हैं इन्होंने | उठाये हैं इन्होंने | ||
− | |||
भारी भरकम बस्ते | भारी भरकम बस्ते | ||
− | |||
कई साल | कई साल | ||
− | |||
स्कूल जाते | स्कूल जाते | ||
− | |||
स्कूल से आते | स्कूल से आते | ||
− | |||
इन कमरतोड़ | इन कमरतोड़ | ||
− | |||
पहाड़ी चढ़ाइयों में | पहाड़ी चढ़ाइयों में | ||
− | |||
कोई भी कम्पनी सेठ नहीं होता | कोई भी कम्पनी सेठ नहीं होता | ||
− | |||
इन्हें काम पर लगाकर खुश | इन्हें काम पर लगाकर खुश | ||
− | |||
वे घर से चलते हैं | वे घर से चलते हैं | ||
− | |||
बाप का दिया | बाप का दिया | ||
− | |||
लड़कर लिया जेब खर्च | लड़कर लिया जेब खर्च | ||
− | |||
और माँ की | और माँ की | ||
− | |||
संकल्पविकल्पों भरी | संकल्पविकल्पों भरी | ||
− | |||
अपलक सान्त्वना | अपलक सान्त्वना | ||
− | |||
दिन भर वे | दिन भर वे | ||
− | |||
घूमते थकते हैं इधर-उधर | घूमते थकते हैं इधर-उधर | ||
− | |||
करते समय को ‘किल’ | करते समय को ‘किल’ | ||
− | |||
कुछ सीखते मार्शल आर्ट | कुछ सीखते मार्शल आर्ट | ||
− | |||
बढ़ाते अपनी माँसपेशियाँ | बढ़ाते अपनी माँसपेशियाँ | ||
− | |||
कुछ लेते अभिनेता बनने के सपने | कुछ लेते अभिनेता बनने के सपने | ||
− | |||
भारत के जनसमुद्र में | भारत के जनसमुद्र में | ||
− | |||
क्या तुम देख नहीं रहे | क्या तुम देख नहीं रहे | ||
− | |||
आ रहा है बेरोजगार पीढिय़ों का | आ रहा है बेरोजगार पीढिय़ों का | ||
− | |||
एक भयंकर चक्रवात | एक भयंकर चक्रवात | ||
− | |||
जिनसे टूट रही है तट की दीवारें ? | जिनसे टूट रही है तट की दीवारें ? | ||
− | |||
एक दिन निश्चय ही ढहेंगी ये | एक दिन निश्चय ही ढहेंगी ये | ||
− | |||
हँसती-खेलती बस्तियाँ | हँसती-खेलती बस्तियाँ | ||
− | |||
छप्परों के जनपद | छप्परों के जनपद | ||
− | |||
और अब | और अब | ||
− | |||
शायद, वे दिन दूर नहीं रहे | शायद, वे दिन दूर नहीं रहे | ||
− | |||
आबादी और उसके असंतुलित | आबादी और उसके असंतुलित | ||
− | |||
बीजगणित के बीच | बीजगणित के बीच | ||
− | |||
रुसवा हो रही है | रुसवा हो रही है | ||
− | |||
एक पूरी की पूरी पीढ़ी | एक पूरी की पूरी पीढ़ी | ||
− | |||
कुछ अकूट प्रतिभाएँ | कुछ अकूट प्रतिभाएँ | ||
− | |||
सत्ता के गलियारों में | सत्ता के गलियारों में | ||
− | |||
कर रहीं लगातार | कर रहीं लगातार | ||
− | |||
अरण्यरोदन | अरण्यरोदन | ||
− | |||
जीविका अब बन गयी है | जीविका अब बन गयी है | ||
− | |||
साँप-सीढ़ी का खेल | साँप-सीढ़ी का खेल | ||
− | |||
ओ, शासको | ओ, शासको | ||
− | |||
क्या तुममें से है | क्या तुममें से है | ||
− | |||
कोई ऐसा मुस्तफा कमाल | कोई ऐसा मुस्तफा कमाल | ||
− | |||
जो एक रात में ही | जो एक रात में ही | ||
− | |||
सुलझा सके यह बुझौवल? | सुलझा सके यह बुझौवल? | ||
− | |||
हाँ, एक ही रात में | हाँ, एक ही रात में | ||
− | |||
अपने न पलटने वाले | अपने न पलटने वाले | ||
− | |||
लौह ऐलानों से? | लौह ऐलानों से? | ||
+ | </poem> |
23:55, 17 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
बेरोज़गार पीढ़ी
बच्चों के पास काम नहीं
वे बन गये हैं अब बेरोजगार
सड़क छाप
पढ़े हैं वे ढेर सारी पोथियाँ
उठाये हैं इन्होंने
भारी भरकम बस्ते
कई साल
स्कूल जाते
स्कूल से आते
इन कमरतोड़
पहाड़ी चढ़ाइयों में
कोई भी कम्पनी सेठ नहीं होता
इन्हें काम पर लगाकर खुश
वे घर से चलते हैं
बाप का दिया
लड़कर लिया जेब खर्च
और माँ की
संकल्पविकल्पों भरी
अपलक सान्त्वना
दिन भर वे
घूमते थकते हैं इधर-उधर
करते समय को ‘किल’
कुछ सीखते मार्शल आर्ट
बढ़ाते अपनी माँसपेशियाँ
कुछ लेते अभिनेता बनने के सपने
भारत के जनसमुद्र में
क्या तुम देख नहीं रहे
आ रहा है बेरोजगार पीढिय़ों का
एक भयंकर चक्रवात
जिनसे टूट रही है तट की दीवारें ?
एक दिन निश्चय ही ढहेंगी ये
हँसती-खेलती बस्तियाँ
छप्परों के जनपद
और अब
शायद, वे दिन दूर नहीं रहे
आबादी और उसके असंतुलित
बीजगणित के बीच
रुसवा हो रही है
एक पूरी की पूरी पीढ़ी
कुछ अकूट प्रतिभाएँ
सत्ता के गलियारों में
कर रहीं लगातार
अरण्यरोदन
जीविका अब बन गयी है
साँप-सीढ़ी का खेल
ओ, शासको
क्या तुममें से है
कोई ऐसा मुस्तफा कमाल
जो एक रात में ही
सुलझा सके यह बुझौवल?
हाँ, एक ही रात में
अपने न पलटने वाले
लौह ऐलानों से?