भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"त्रयेक / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) |
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत | |रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत | ||
− | + | |संग्रह=घर एक यात्रा है / श्रीनिवास श्रीकांत | |
}} | }} | ||
+ | <poem> | ||
+ | त्रयेक | ||
लोहार चला रहा | लोहार चला रहा | ||
− | |||
लगातार अपनी धोंकनी | लगातार अपनी धोंकनी | ||
− | |||
कुम्भकार दे रहा | कुम्भकार दे रहा | ||
− | |||
मिट्टी को आकर | मिट्टी को आकर | ||
− | |||
बुनकर बुन रहा | बुनकर बुन रहा | ||
− | |||
ब्रह्मासूत | ब्रह्मासूत | ||
− | |||
जाने त्रयेक परमेश्वरों ने | जाने त्रयेक परमेश्वरों ने | ||
− | |||
क्यों रची होगी | क्यों रची होगी | ||
− | |||
यह रूखी, अड़िय़ल | यह रूखी, अड़िय़ल | ||
− | |||
और नापायेदार | और नापायेदार | ||
− | |||
अदभुत माया | अदभुत माया | ||
− | |||
इसे जानते हैं तो जानते फकत | इसे जानते हैं तो जानते फकत | ||
− | |||
साधू आखरों के सबदकार | साधू आखरों के सबदकार | ||
− | |||
कि पेड़ लगातार झड़ रहे हैं | कि पेड़ लगातार झड़ रहे हैं | ||
− | |||
फिर भी उनसे आ रही है | फिर भी उनसे आ रही है | ||
− | |||
खंजड़ी और मंजीरों की धुन | खंजड़ी और मंजीरों की धुन | ||
− | |||
बेमौसम क्यों अँकुराते हैं | बेमौसम क्यों अँकुराते हैं | ||
− | |||
जंगली अंजीरों केपेड़ | जंगली अंजीरों केपेड़ | ||
− | |||
बना रही हैं क्यों शहद और मोम | बना रही हैं क्यों शहद और मोम | ||
− | |||
गुनगुन भजन गातीं मधुमक्खियाँ | गुनगुन भजन गातीं मधुमक्खियाँ | ||
− | |||
बज रहा सबके अन्दर क्यों | बज रहा सबके अन्दर क्यों | ||
− | |||
एक नाद | एक नाद | ||
− | |||
फिर भी आदमी है | फिर भी आदमी है | ||
− | |||
लोहार का | लोहार का | ||
− | |||
बजता हुआ धोकी यंत्र | बजता हुआ धोकी यंत्र | ||
− | |||
कुम्हार की मृद् घड़त | कुम्हार की मृद् घड़त | ||
− | |||
और जुलाहे की चादर | और जुलाहे की चादर | ||
− | |||
वह है अनादि अनन्त का | वह है अनादि अनन्त का | ||
− | |||
एक नायाब तोहफा | एक नायाब तोहफा | ||
− | |||
जिसे चला रहे | जिसे चला रहे | ||
− | |||
लोहार | लोहार | ||
− | |||
कुम्हार | कुम्हार | ||
− | |||
और बुनकर। | और बुनकर। | ||
+ | </poem> |
00:05, 18 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
त्रयेक
लोहार चला रहा
लगातार अपनी धोंकनी
कुम्भकार दे रहा
मिट्टी को आकर
बुनकर बुन रहा
ब्रह्मासूत
जाने त्रयेक परमेश्वरों ने
क्यों रची होगी
यह रूखी, अड़िय़ल
और नापायेदार
अदभुत माया
इसे जानते हैं तो जानते फकत
साधू आखरों के सबदकार
कि पेड़ लगातार झड़ रहे हैं
फिर भी उनसे आ रही है
खंजड़ी और मंजीरों की धुन
बेमौसम क्यों अँकुराते हैं
जंगली अंजीरों केपेड़
बना रही हैं क्यों शहद और मोम
गुनगुन भजन गातीं मधुमक्खियाँ
बज रहा सबके अन्दर क्यों
एक नाद
फिर भी आदमी है
लोहार का
बजता हुआ धोकी यंत्र
कुम्हार की मृद् घड़त
और जुलाहे की चादर
वह है अनादि अनन्त का
एक नायाब तोहफा
जिसे चला रहे
लोहार
कुम्हार
और बुनकर।