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बरसों से भूखी हैं | बरसों से भूखी हैं |
23:37, 31 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
बरसों से भूखी हैं
कविताएँ
कवि लोग करवा रहे हैं
उनसे बंधुआ मज़दूरी
शोषण कर रहे हैं
भुक्खड़ कवि
और आलोचक सो रहे हैं
चालान की बहियों पर
फड़फड़ा रहे हैं ज़मीन पर पड़े
सूखे पतझड़ी पत्ते।
बाज़ार में
महंगे दामों पर भी उपलब्ध नहीं है
कविता की आदिम ख़ुराक
न उसकी प्यास के लिए
बची है मैल से कोई नदी