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"रोज़ जैसी सुबह / अनूप सेठी" के अवतरणों में अंतर

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रोज़् जैसी सुबह रोज जैसी शाम  
 
रोज़् जैसी सुबह रोज जैसी शाम  

22:20, 4 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

रोज़् जैसी सुबह रोज जैसी शाम
जैसी वह लड़की शब्दों के बाहर है
मैं कई चश्मों को उतार कर देखता हूँ

वह खड़ी है पार्क में
सजे संवरे बच्चे के साथ
एक बार झूले में बैठ जाती है
जैसे चिड़ी आसमान मापती है
पर उसे समय की खबर है
कब बच्चे के सोने कब खाने का समय है
बर्तन-भाँडों का अँबार इँतजार कर रहा है
और लड़की पीतल की कटोरी में सब्जी की तरी
खाते हुए मुस्कुराना सीख गई है
झूले में बैठ कर चिड़ी
दूसरी बार आसमान मापने नहीं जाएगी
उसे समय की खबर है वह समय खराब नहीं करेगी

कुछ रोज़ लड़की पाठशाला गई थी
उसकी आँखों में तैरती रही गचक
खींचती रही भुनी मूंगफली की गँध
पाठशाला / गचक / भुनी मूँगफली की गँध और
लड़की के बीच लोहे के जँगले जैसी दीवार थी
लड़की दीवार से छोटी थी
माध्यमिक पाठशाला की बहिनजी दीवार से ऊँची थीं
सो उन्हीं का घर है उन्हीं का बच्चा
उन्हीं की कालोनी में पार्क है
जाते हुए या लौटते हुए छाबेवाला बैठा होता है
उसी मोड़ पर आकर वह बच्चे को फुसलाते हुए सुनाती है
एक चिड़ी ने जब मूंगफली का दाना खाया
उसे 'खों-खों' खाँसी आ गई
बच्चा हँसता है उसे 'खों-खों ' करते हुए देखने की जिद्द करता है

लड़की ने 'खों-खों' करते बाप को देखा है
पर उसके जानते बाप ने कभी मूंगफली नहीं खाई
तभी लड़की सोचती है वह भी दाना चुग के देखे
चिड़ी का गला कैसे बैठता है
वह जैसे बाप की 'खों-खों' और बलगम के थेगलों पर चलती है
चुपचाप बहिनजी के घर की सीढ़ियाँ चढ़ जाती है

लड़की सुबह सुबह दूध लेने जाती है
शाम को बहिनजी की पड़ोसिन से
मेहमानों की चाय के लिए चीनी उधार मांग लाती है

इस बीच वह कुछ साल भाषा सीखती है
बहिनजी की कुर्ती पहनती है
गुड्डो दीदी की शादी से लौटते हुए वह बड़ी हो जाती है
नदी पार जाना चाहती है
क्या जेठ क्या हाड़
किनारे फैलते ही जाते हैं
चिड़ी कहां उड़े हवा थमती ही नहीं
उसे घर की मुर्गी की याद आती है
दड़बे से उड़ती थी थड़े पर बैठती थी
और भाई अंडा उठा लाता था
लड़की अखरोट की बीड़ी से चमकते दांत
और उनाबी ओंठ महसूस करती है
सारी ढलान पर धतूरे की घंटियां झूलती हैं
वह सोचती है शिवजी इतना अक धतूरा क्यों खाते थे
पार्वती ने पहले नहीं जाना होगा
और वह उदास हो जाती है

रोज़ जैसी शाम को
बाबू लोग उसके बरामदे के थड़े पर आ बैठते हैं
सास गिलास उड़ेलती है
बाबू लोग ऊपर के घरों में झूमते हुए डूब जाते हैं
बुङ्ढा बीड़ी बुझा कर थाली अपने पास सरकाता है
लड़की देखती है एक चिंगारी बुझ गई
उपला गहरी रात तक सुलगता रहेगा
एक अँधेरा धुँआ
ऊपर सरीकों की घुराल में गाय अब भी पूँछ
पछाड़-पछाड़ कर मच्छर उड़ा रही होगी
रोज़ जैसी शाम को पुलीस आती है
पिछवाड़े गुड़ कढ़ने के लिए रखा है
एक कनस्तर झोल
सास के नाम रिपोर्ट लिखती है
बुड्ढा बीमार बना खाट पर पड़ा है
वो आएगी सुबह
तू पिछवाड़े एक और उपला रख दे
कुछ धुखता है
लड़की कैसे देखे यह धुँआ सरसराहट भी नहीं करता
बाप के बलगम के थेगले पर चलकर आती हुई लड़की
खूसट बुड्ढे के सामने सुलगते उपले पर चलती है

रोज़ जैसी सुबह रोज जैसी शाम को
वह सेठों बाबुओं के घर जाती है
दाई बहुओं के बच्चे जनवाती है
मालिश करती है कपड़े धोती है

रोज़ जैसी सुबह रोज़ जैसी शाम को
धतूरे की झाड़ियाँ लाँघ कर वह रुक जाती है
क्या खबर इस जेठ हाड़ में नदी
शिव की इन झाड़ियों तक फैल जाए
लड़की धतूरे की एक टहनी तोड़ती है
बहते पानी में फेंक देती है
और चल देती है
जैसे रोज़ जैसी सुबह रोज़ जैसी शाम।
                             (1984)