भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"काँपते पाणि में उठा लिया प्रिय तुमने फिर रस-भरित चषक / प्रेम नारायण 'पंकिल'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेम नारायण 'पंकिल' |संग्रह= }} Category:कविता <poem> काँ...) |
|||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
काँपते पाणि में उठा लिया प्रिय तुमने फिर रस-भरित चषक। | काँपते पाणि में उठा लिया प्रिय तुमने फिर रस-भरित चषक। | ||
− | |||
मृदु चिबुक चूम मेरे अधरों पर उसे रख दिया प्राण! ललक। | मृदु चिबुक चूम मेरे अधरों पर उसे रख दिया प्राण! ललक। | ||
− | |||
क्या बतलाऊँ कैसी तेरी प्रिय उमड़ी प्रीति अगाधा थी। | क्या बतलाऊँ कैसी तेरी प्रिय उमड़ी प्रीति अगाधा थी। | ||
− | |||
अनवरत गिरा बोलती जा रही राधा-राधा-राधा थी। | अनवरत गिरा बोलती जा रही राधा-राधा-राधा थी। | ||
− | |||
”तुम बिना न जी सकता“ कहते थे भाल हमारा सहलाकर। | ”तुम बिना न जी सकता“ कहते थे भाल हमारा सहलाकर। | ||
− | |||
उर पर लटकते हार से फिर तुम लगे खेलने लीलाधर। | उर पर लटकते हार से फिर तुम लगे खेलने लीलाधर। | ||
− | |||
तव हास-विलास-कला-विधुरा बावरिया बरसाने वाली । | तव हास-विलास-कला-विधुरा बावरिया बरसाने वाली । | ||
− | |||
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥80॥ | क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥80॥ | ||
</poem> | </poem> |
20:23, 2 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण
काँपते पाणि में उठा लिया प्रिय तुमने फिर रस-भरित चषक।
मृदु चिबुक चूम मेरे अधरों पर उसे रख दिया प्राण! ललक।
क्या बतलाऊँ कैसी तेरी प्रिय उमड़ी प्रीति अगाधा थी।
अनवरत गिरा बोलती जा रही राधा-राधा-राधा थी।
”तुम बिना न जी सकता“ कहते थे भाल हमारा सहलाकर।
उर पर लटकते हार से फिर तुम लगे खेलने लीलाधर।
तव हास-विलास-कला-विधुरा बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥80॥