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"माँ से सुनी दँत कथा / तेज राम शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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ढूंडता फिरता हूँ
+
टी.वी. पर
अपनी पहचान के अक्षर
+
प्रजनन की प्रक्रिया देखते
सिमटे से दबे रहते हैं
+
उभर पड़ता है
उलझे मेरे हस्ताक्षर
+
अंधेरे ओबरे के कोने में
 +
चिमनी के मंद प्रकाश में
 +
माँ का वेदना से कराहता
 +
स्वेद भरा मुख
 +
सो रहे पशु भी
 +
संभावना से  
 +
चौकन्ने हो गए होंगे
  
पुराने काग़जों का एक पहाड़
 
सदा रहा मेरे सामने
 
उसे छांटते संवारते
 
उड़ती रही धूल
 
जमती रही मेरे ऊपर
 
गोधूली तक
 
  
धुंधलके में सदा
+
मेरे रोने के उन्होंने
भूत-सा दिखता रहा कुछ
+
क्या अर्थ लगाए पता नहीं
बूँद-बूँद रिसता रहा
+
पर दादी
मेरा अस्तित्व
+
घर भर सूंघती रही
किस से पूछूं
+
अमर बेल की सुगंध
क्या मैंने भी
+
और भगदड़  में टटोलती रही कुछ
जी लिया एक जीवन
+
  
सुबह उठकर
+
दादा  को समय की गणना करते हुए
मलता रहता हूँ आँखें
+
तारे शायद कुछ ज्यादा ही
याद नहीं आते
+
चमकते हुए दिखे होंगे
सपने में जो
+
पर्वत की ओट में  
देखे थे सपने
+
घाटी के सन्नाटे को चीरती
आँखों में वह चमक कहाँ
+
बंदूक की आवाज़ से
देख सके जो
+
पता नहीं पिता
क्षितिज पर दूज का चाँद
+
अपनी उपलब्धि का  
 +
उदघोष कर रहे थे
 +
या करा रहे थे नवजात को
 +
भविष्य के लिए तैयार
  
बादलों से
+
यह सब कुछ
एक साथ टपकी
+
याद कर लेने के बाद भी
पहाड़ के दोनों ढलानों पर बरसी
+
पता नहीं मुझे क्यों
ओ मेरी रसधार
+
आज याद हो आती है
तू कहाँ! मैं कहां?
+
माँ से बचपन में बार-बार सुनी
 +
वह दंतकथा
 +
जिसमें एक महारानी
 +
जनती थी सिलबट्टा।
 
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12:14, 4 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण

टी.वी. पर
प्रजनन की प्रक्रिया देखते
उभर पड़ता है
अंधेरे ओबरे के कोने में
चिमनी के मंद प्रकाश में
माँ का वेदना से कराहता
स्वेद भरा मुख
सो रहे पशु भी
संभावना से
चौकन्ने हो गए होंगे


मेरे रोने के उन्होंने
क्या अर्थ लगाए पता नहीं
पर दादी
घर भर सूंघती रही
अमर बेल की सुगंध
और भगदड़ में टटोलती रही कुछ

दादा को समय की गणना करते हुए
तारे शायद कुछ ज्यादा ही
चमकते हुए दिखे होंगे
पर्वत की ओट में
घाटी के सन्नाटे को चीरती
बंदूक की आवाज़ से
पता नहीं पिता
अपनी उपलब्धि का
उदघोष कर रहे थे
या करा रहे थे नवजात को
भविष्य के लिए तैयार

यह सब कुछ
याद कर लेने के बाद भी
पता नहीं मुझे क्यों
आज याद हो आती है
माँ से बचपन में बार-बार सुनी
वह दंतकथा
जिसमें एक महारानी
जनती थी सिलबट्टा।