"कुछ शेर / फ़राज़" के अवतरणों में अंतर
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+ | उस शख़्स को बिछड़ने का सलीका भी नहीं, | ||
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18:39, 6 अक्टूबर 2010 के समय का अवतरण
1.
अब किस का जश्न मनाते हो उस देस का जो तक़्सीम हुआ
अब किस के गीत सुनाते हो उस तन-मन का जो दो-नीम हुआ
2.
उस ख़्वाब का जो रेज़ा रेज़ा उन आँखों की तक़दीर हुआ
उस नाम का जो टुकड़ा टुकड़ा गलियों में बे-तौक़ीर हुआ
3.
उस परचम का जिस की हुर्मत बाज़ारों में नीलाम हुई
उस मिट्टी का जिस की हुर्मत मन्सूब उदू के नाम हुई
4.
उस जंग का जो तुम हार चुके उस रस्म का जो जारी भी नहीं
उस ज़ख़्म का जो सीने पे न था उस जान का जो वारी भी नहीं
5.
उस ख़ून का जो बदक़िस्मत था राहों में बहाया तन में रहा
उस फूल का जो बेक़ीमत था आँगन में खिला या बन में रहा
6.
उस मश्रिक़ का जिस को तुम ने नेज़े की अनी मर्हम समझा
उस मग़रिब का जिस को तुम ने जितना भी लूटा कम समझा
7.
उन मासूमों का जिन के लहू से तुम ने फ़रोज़ाँ रातें कीं
या उन मज़लूमों का जिस से ख़ंज़र की ज़ुबाँ में बातें कीं
8.
उस मरियम का जिस की इफ़्फ़त लुटती है भरे बाज़ारों में
उस ईसा का जो क़ातिल है और शामिल है ग़मख़्वारों में
9.
इन नौहागरों का जिन ने हमें ख़ुद क़त्ल किया ख़ुद रोते हैं
ऐसे भी कहीं दमसाज़ हुए ऐसे जल्लाद भी होते हैं
10.
उन भूखे नंगे ढाँचों का जो रक़्स सर-ए-बाज़ार करें
या उन ज़ालिम क़ज़्ज़ाक़ों का जो भेस बदल कर वार करें
11.
या उन झूठे इक़रारों का जो आज तलक ऐफ़ा न हुए
या उन बेबस लाचारों का जो और भी दुख का निशाना हुए
12.
इस शाही का जो दस्त-ब-दस्त आई है तुम्हारे हिस्से में
क्यों नन्ग-ए-वतन की बात करो क्या रखा है इस क़िस्से में
13.
आँखों में छुपाये अश्कों को होंठों में वफ़ा के बोल लिये
इस जश्न में भी शामिल हूँ नौहों से भरा कश्कोल लिये
14.
दिल के रिश्तों कि नज़ाक़त वो क्या जाने 'फ़राज़'
नर्म लफ़्ज़ों से भी लग जाती हैं चोटें अक्सर
15.
चढते सूरज के पूजारी तो लाखों हैं 'फ़राज़',
डूबते वक़्त हमने सूरज को भी तन्हा देखा |
16.
उस शख़्स को बिछड़ने का सलीका भी नहीं,
जाते हुए खुद को मेरे पास छोड़ गया ।