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"कायनात के पार / रंजना भाटिया" के अवतरणों में अंतर

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होंठो पर सिसकती..
 
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थिरकती ,मचलती
 
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नदी सी मुझे लगती है
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और तब नयनों से जैसे
 
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कोई बदरी बिन बरखा के बरसती है
 
कोई बदरी बिन बरखा के बरसती है
  
और फ़िर यूं ही कुछ उभरे हुए
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अखारों की जुबान
 
अखारों की जुबान
 
पूछती है एक सवाल
 
पूछती है एक सवाल
नही जानती किस से?
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नहीं जानती किस से?
 
क्या मिलेगा कभी कोई जवाब मुझे
 
क्या मिलेगा कभी कोई जवाब मुझे
 
अपने ही भीतर दहकते इस लावे का
 
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बस जानती हूँ कि
 
बस जानती हूँ कि
एक जमीन ...एक आसमान
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एक ज़मीन ...एक आसमान
बसते है इस माटी के पुतले में भी
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बसते हैं इस माटी के पुतले में भी
 
और मोहब्बत का जहान
 
और मोहब्बत का जहान
 
एक जाल कभी बुनता है
 
एक जाल कभी बुनता है
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जिसका दीदार
 
जिसका दीदार
 
सिर्फ़ इस कायनात के पार होता है ..
 
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और यह सफर यूं ही अधूरा रहता है....
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20:40, 24 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

 

शब्दों को बना के मिलन का सेतु
मैं अपने दिल के इस किनारे से
तेरे दिल के उस किनारे को छूती हूँ
जहाँ कोई याद जैसे
होंठो पर सिसकती..
थिरकती ,मचलती
नदी-सी मुझे लगती है
और तब नयनों से जैसे
कोई बदरी बिन बरखा के बरसती है

और फिर यूँ ही कुछ उभरे हुए
अखारों की जुबान
पूछती है एक सवाल
नहीं जानती किस से?
क्या मिलेगा कभी कोई जवाब मुझे
अपने ही भीतर दहकते इस लावे का
कौन हिसाब देगा मुझे?

बस जानती हूँ कि
एक ज़मीन ...एक आसमान
बसते हैं इस माटी के पुतले में भी
और मोहब्बत का जहान
एक जाल कभी बुनता है
कभी उलझता है
चाहता है सिर्फ़
यह उसी मोहब्बत का तकाजा
हमसे......
जिसका दीदार
सिर्फ़ इस कायनात के पार होता है ..
और यह सफर यूँ ही अधूरा रहता है....