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"आदमी / ओ पवित्र नदी / केशव" के अवतरणों में अंतर

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आदमियों की बस्ती में भी
 
आदमियों की बस्ती में भी
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जिसे वह  
 
जिसे वह  
 
अंधड़ से गुज़रकर स्वीकारता है
 
अंधड़ से गुज़रकर स्वीकारता है
 
दुनिया
 
 
हम-तुम
 
छोड़ आये हैं एक दुनिया
 
हमारे पास अब
 
अपने-अपने चाकू हैं
 
खुरचते हैं जिनसे
 
अपनी छोटी-सी दुनिया को
 
 
लपकते हैं
 
गरजते हैं
 
छान-छानकर
 
अपनी ज़िंदगी में पड़े कंकड़ों को
 
 
क्या इसीलिए छोड़ी थी वह दुनिया
 
क्या इतनी थोड़ी है
 
यह दुनिया
 
कि बार-बार लौटते हैं
 
उसी खिड़की के नीचे
 
जिसे साथ-साथ
 
बंद कर आये थे हम
 
 
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20:41, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

आदमियों की बस्ती में भी
आदमी की तलाश है
यह कैसा
अविश्वास है

बनत्ते-बनते जिसके

कितना कुछ निचुड़ जाता है
और टूटते वक्त
बस कहीं से भी कुछ
नमालूम सा
उखड जाता है

फिर दुख का अंधड़
वृक्ष की तरह फैलते आदमी को
झकझोरता है
टहनी-टहनी
पत्ता-पत्ता
बस यहीं
आदमी को
उसका आत्मविश्वास पुकारता है
जिसे वह
अंधड़ से गुज़रकर स्वीकारता है