"व्यंग्यकार से / शैल चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैल चतुर्वेदी |संग्रह=चल गई / शैल चतुर्वेदी }} <poem> ...) |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) छो (व्यंगकार से / शैल चतुर्वेदी का नाम बदलकर व्यंग्यकार से / शैल चतुर्वेदी कर दिया गया है) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
}} | }} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | हमनें एक | + | हमनें एक बेरोज़गार मित्र को पकड़ा |
और कहा, "एक नया व्यंग्य लिखा है, सुनोगे?" | और कहा, "एक नया व्यंग्य लिखा है, सुनोगे?" | ||
तो बोला, "पहले खाना खिलाओ।" | तो बोला, "पहले खाना खिलाओ।" | ||
पंक्ति 11: | पंक्ति 11: | ||
पान खिलाया तो बोला, "खाना बहुत बढ़िया था | पान खिलाया तो बोला, "खाना बहुत बढ़िया था | ||
उसका मज़ा मिट्टी में मत मिलाओ। | उसका मज़ा मिट्टी में मत मिलाओ। | ||
− | अपन | + | अपन ख़ुद ही देश की छाती पर जीते-जागते व्यंग्य हैं |
हमें व्यंग्य मत सुनाओ | हमें व्यंग्य मत सुनाओ | ||
− | जो जन सेवा के नाम पर | + | जो जन-सेवा के नाम पर ऐश करता रहा |
और हमें बेरोज़गारी का रोजगार देकर | और हमें बेरोज़गारी का रोजगार देकर | ||
कुर्सी को कैश करता रहा। | कुर्सी को कैश करता रहा। | ||
+ | व्यंग्य उस अफ़सर को सुनाओ | ||
+ | जो हिन्दी के प्रचार की डफली बजाता रहा | ||
+ | और अपनी औलाद को अंग्रेज़ी का पाठ पढ़ाता रहा। | ||
+ | व्यंग्य उस सिपाही को सुनाओ | ||
+ | जो भ्रष्टाचार को अपना अधिकार मानता रहा | ||
+ | और झूठी गवही को पुलीस का संस्कार मानता रहा। | ||
+ | व्यंग्य उस डॉक्टर को सुनाओ | ||
+ | जो पचास रूपये फ़ीस के लेकर | ||
+ | मलेरिया को टी.बी. बतलाता रहा | ||
+ | और नर्स को अपनी बीबी बतलाता रहा। | ||
+ | व्यंग्य उस फ़िल्मकार को सुनाओ | ||
+ | जो फ़िल्म में से इल्म घटाता रहा | ||
+ | और संस्कृति के कपड़े उतार कर सेंसर को पटाता रहा। | ||
+ | व्यंग्य उस सास को सुनाओ | ||
+ | जिसने बेटी जैसी बहू को ज्वाला का उपहार दिया | ||
+ | और व्यंग्य उस वसना के कीड़े को सुनाओ | ||
+ | जिसने अपनी भूख मिटाने के लिए | ||
+ | नारी को बाज़ार दिया। | ||
+ | व्यंग्य उस श्रोता को सुनाओ | ||
+ | जो गीत की हर पंक्ति पर बोर-बोर करता रहा | ||
+ | और बकवास को बढ़ावा देने के लिए | ||
+ | वंस मोर करता रहा। | ||
+ | व्यंग्य उस व्यंग्यकार को सुनाओ | ||
+ | जो अर्थ को अनर्थ में बदलने के लिए | ||
+ | वज़नदार लिफ़ाफ़े की मांग करता रहा | ||
+ | और अपना उल्लू सीधा करने के लिए | ||
+ | व्यंग्य को विकलांग करता रहा। | ||
+ | और जो व्यंग्य स्वयं ही अन्धा, लूला और लंगड़ा हो | ||
+ | तीर नहीं बन सकता | ||
+ | आज का व्यंग्यकार भले ही "शैल चतुर्वेदी" हो जाए | ||
+ | 'कबीर' नहीं बन सकता। | ||
+ | </poem> |
09:09, 4 मई 2009 के समय का अवतरण
हमनें एक बेरोज़गार मित्र को पकड़ा
और कहा, "एक नया व्यंग्य लिखा है, सुनोगे?"
तो बोला, "पहले खाना खिलाओ।"
खाना खिलाय तो बोला, "पान खिलाओ।"
पान खिलाया तो बोला, "खाना बहुत बढ़िया था
उसका मज़ा मिट्टी में मत मिलाओ।
अपन ख़ुद ही देश की छाती पर जीते-जागते व्यंग्य हैं
हमें व्यंग्य मत सुनाओ
जो जन-सेवा के नाम पर ऐश करता रहा
और हमें बेरोज़गारी का रोजगार देकर
कुर्सी को कैश करता रहा।
व्यंग्य उस अफ़सर को सुनाओ
जो हिन्दी के प्रचार की डफली बजाता रहा
और अपनी औलाद को अंग्रेज़ी का पाठ पढ़ाता रहा।
व्यंग्य उस सिपाही को सुनाओ
जो भ्रष्टाचार को अपना अधिकार मानता रहा
और झूठी गवही को पुलीस का संस्कार मानता रहा।
व्यंग्य उस डॉक्टर को सुनाओ
जो पचास रूपये फ़ीस के लेकर
मलेरिया को टी.बी. बतलाता रहा
और नर्स को अपनी बीबी बतलाता रहा।
व्यंग्य उस फ़िल्मकार को सुनाओ
जो फ़िल्म में से इल्म घटाता रहा
और संस्कृति के कपड़े उतार कर सेंसर को पटाता रहा।
व्यंग्य उस सास को सुनाओ
जिसने बेटी जैसी बहू को ज्वाला का उपहार दिया
और व्यंग्य उस वसना के कीड़े को सुनाओ
जिसने अपनी भूख मिटाने के लिए
नारी को बाज़ार दिया।
व्यंग्य उस श्रोता को सुनाओ
जो गीत की हर पंक्ति पर बोर-बोर करता रहा
और बकवास को बढ़ावा देने के लिए
वंस मोर करता रहा।
व्यंग्य उस व्यंग्यकार को सुनाओ
जो अर्थ को अनर्थ में बदलने के लिए
वज़नदार लिफ़ाफ़े की मांग करता रहा
और अपना उल्लू सीधा करने के लिए
व्यंग्य को विकलांग करता रहा।
और जो व्यंग्य स्वयं ही अन्धा, लूला और लंगड़ा हो
तीर नहीं बन सकता
आज का व्यंग्यकार भले ही "शैल चतुर्वेदी" हो जाए
'कबीर' नहीं बन सकता।