"बादल को घिरते देखा है / नागार्जुन" के अवतरणों में अंतर
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+ | पावस की ऊमस से आकुल | ||
+ | तिक्त-मधुर विष-तंतु खोजते | ||
+ | हंसों को तिरते देखा है। | ||
बादल को घिरते देखा है। | बादल को घिरते देखा है। | ||
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ऋतु वसंत का सुप्रभात था | ऋतु वसंत का सुप्रभात था | ||
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अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे | अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे | ||
एक-दूसरे से विरहित हो | एक-दूसरे से विरहित हो | ||
− | अलग- | + | अलग-बगल रहकर ही जिनको |
− | सारी रात बितानी | + | सारी रात बितानी होगी, |
− | + | निशाकाल से चिर-अभिशापित | |
बेबस उस चकवा-चकई का | बेबस उस चकवा-चकई का | ||
− | बंद हुआ | + | बंद हुआ क्रन्दन, फिर उनमें |
− | उस | + | उस महान सरवर के तीरे |
शैवालों की हरी दरी पर | शैवालों की हरी दरी पर | ||
− | प्रणय-कलह छिड़ते देखा है। | + | प्रणय-कलह छिड़ते देखा है। |
+ | बादल को घिरते देखा है। | ||
+ | दुर्गम बर्फानी घाटी में | ||
+ | शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर | ||
+ | अलख नाभि से उठने वाले | ||
+ | निज के ही उन्मादक परिमल- | ||
+ | के पीछे धावित हो-होकर | ||
+ | तरल-तरुण कस्तूरी मृग को | ||
+ | अपने पर चिढ़ते देखा है। | ||
बादल को घिरते देखा है। | बादल को घिरते देखा है। | ||
+ | कहाँ गया धनपति कुबेर वह? | ||
+ | कहाँ गयी उसकी वह अलका? | ||
+ | नहीं ठिकाना कालिदास के | ||
+ | व्योम-प्रवाही गंगाजल का, | ||
+ | ढूँढ़ा बहुत परन्तु लगा क्या | ||
+ | मेघदूत का पता कहीं पर, | ||
+ | कौन बताए वह छायामय | ||
+ | बरस पड़ा होगा न यहीं पर, | ||
+ | जाने दो, वह कवि-कल्पित था, | ||
+ | मैंने तो भीषण जाड़ों में | ||
+ | नभ-चुम्बी कैलाश शीर्ष पर, | ||
+ | महामेघ को झंझानिल से | ||
+ | गरज-गरज भिड़ते देखा है, | ||
+ | बादल को घिरते देखा है। | ||
− | शत- | + | शत-शत निर्झर-निर्झरणी-कल |
− | + | मुखरित देवदारु कानन में, | |
− | + | शोणित-धवल-भोजपत्रों से | |
− | + | छायी हुई कुटी के भीतर, | |
− | + | रंग-बिरंगे और सुगंधित | |
− | + | फूलों से कुन्तल को साजे, | |
− | अपने पर | + | इंद्रनील की माला डाले |
− | + | शंख-सरीखे सुघड़ गलों में, | |
+ | कानों में कुवलय लटकाए, | ||
+ | शतदल लाल कमल वेणी में, | ||
+ | रजत-रचित मणि-खचित कलामय | ||
+ | पान पात्र द्राक्षासव-पूरित | ||
+ | रखे सामने अपने-अपने | ||
+ | लोहित चंदन की त्रिपदी पर, | ||
+ | नरम निदाग बाल-कस्तूरी | ||
+ | मृगछालों पर पलथी मारे | ||
+ | मदिरारुण आखों वाले उन | ||
+ | उन्मद किन्नर-किन्नरियों की | ||
+ | मृदुल मनोरम अँगुलियों को | ||
+ | वंशी पर फिरते देखा है। | ||
बादल को घिरते देखा है। | बादल को घिरते देखा है। | ||
− | + | '''1938''' | |
− | + | '''('युगधारा')''' | |
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19:07, 1 जुलाई 2020 के समय का अवतरण
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अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी-बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त-मधुर विष-तंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-बगल रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होगी,
निशाकाल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रन्दन, फिर उनमें
उस महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
दुर्गम बर्फानी घाटी में
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
कहाँ गया धनपति कुबेर वह?
कहाँ गयी उसकी वह अलका?
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत परन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो, वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुम्बी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।
शत-शत निर्झर-निर्झरणी-कल
मुखरित देवदारु कानन में,
शोणित-धवल-भोजपत्रों से
छायी हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों से कुन्तल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि-खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव-पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपदी पर,
नरम निदाग बाल-कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
1938
('युगधारा')