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"बादल को घिरते देखा है / नागार्जुन" के अवतरणों में अंतर

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बेबस उस चकवा-चकई का
 
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बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें
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उस महान् सरवर के तीरे
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शैवालों की हरी दरी पर
 
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दुर्गम बर्फानी घाटी में
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अलख नाभि से उठने वाले
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कहाँ गया धनपति कुबेर वह?
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नहीं ठिकाना कालिदास के
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व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
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ढूँढ़ा बहुत परन्तु लगा क्या
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मेघदूत का पता कहीं पर,
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कौन बताए वह छायामय
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बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
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जाने दो, वह कवि-कल्पित था,
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नभ-चुम्बी कैलाश शीर्ष पर,
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महामेघ को झंझानिल से
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गरज-गरज भिड़ते देखा है,
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बादल को घिरते देखा है।
  
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर<br>
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शत-शत निर्झर-निर्झरणी-कल
दुर्गम बर्फानी घाटी में<br>
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मुखरित देवदारु कानन में,
अलख नाभि से उठने वाले<br>
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निज के ही उन्मादक परिमल-<br>
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छायी हुई कुटी के भीतर,
के पीछे धावित हो-होकर<br>
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रंग-बिरंगे और सुगंधित
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को<br>
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फूलों से कुन्तल को साजे,
अपने पर चिढ़ते देखा है,<br>
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इंद्रनील की माला डाले
 
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रजत-रचित मणि-खचित कलामय
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पान पात्र द्राक्षासव-पूरित
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लोहित चंदन की त्रिपदी पर,
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नरम निदाग बाल-कस्तूरी
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मृगछालों पर पलथी मारे
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मदिरारुण आखों वाले उन
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उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
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मृदुल मनोरम अँगुलियों को
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वंशी पर फिरते देखा है।
 
बादल को घिरते देखा है।
 
बादल को घिरते देखा है।
  
 
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कहाँ गय धनपति कुबेर वह<br>
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रंग-बिरंगे और सुगंधित<br>
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फूलों की कुंतल को साजे,<br>
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इंद्रनील की माला डाले<br>
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शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,<br>
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कानों में कुवलय लटकाए,<br>
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शतदल लाल कमल वेणी में,<br>
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रजत-रचित मणि खचित कलामय<br>
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पान पात्र द्राक्षासव पूरित<br>
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रखे सामने अपने-अपने<br>
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लोहित चंदन की त्रिपटी पर,<br>
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नरम निदाग बाल कस्तूरी<br>
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मृगछालों पर पलथी मारे<br>
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मदिरारुण आखों वाले उन<br>
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उन्मद किन्नर-किन्नरियों की<br>
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मृदुल मनोरम अँगुलियों को<br>
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वंशी पर फिरते देखा है।<br>
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बादल को घिरते देखा है।
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19:07, 1 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

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अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है।
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर
छोटी-बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की ऊमस से आकुल
तिक्त-मधुर विष-तंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

ऋतु वसंत का सुप्रभात था
मंद-मंद था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-बगल रहकर ही जिनको
सारी रात बितानी होगी,
निशाकाल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हुआ क्रन्दन, फिर उनमें
उस महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

दुर्गम बर्फानी घाटी में
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल-
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

कहाँ गया धनपति कुबेर वह?
कहाँ गयी उसकी वह अलका?
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूँढ़ा बहुत परन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो, वह कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुम्बी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है,
बादल को घिरते देखा है।

शत-शत निर्झर-निर्झरणी-कल
मुखरित देवदारु कानन में,
शोणित-धवल-भोजपत्रों से
छायी हुई कुटी के भीतर,
रंग-बिरंगे और सुगंधित
फूलों से कुन्तल को साजे,
इंद्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि-खचित कलामय
पान पात्र द्राक्षासव-पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपदी पर,
नरम निदाग बाल-कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आखों वाले उन
उन्मद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोरम अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।

1938
('युगधारा')