"रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 1" के अवतरणों में अंतर
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'जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को, | 'जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को, | ||
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जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को। | जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को। | ||
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किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल, | किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल, | ||
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सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल। | सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल। | ||
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ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, | ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, | ||
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दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है। | दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है। | ||
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क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग, | क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग, | ||
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सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग। | सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग। | ||
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तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के, | तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के, | ||
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पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के। | पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के। | ||
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हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक, | हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक, | ||
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वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक। | वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक। | ||
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जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी, | जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी, | ||
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उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी। | उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी। | ||
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सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर, | सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर, | ||
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निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर। | निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर। | ||
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तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी, | तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी, | ||
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जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी। | जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी। | ||
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ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास, | ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास, | ||
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अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास। | अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास। | ||
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22:12, 29 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
'जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।
किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,
सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।
ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।
जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर।
तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।