भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 7" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"  
+
|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"}}
|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"  
+
{{KKPageNavigation
 +
|पीछे=रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 6
 +
|आगे=रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 1
 +
|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatKavita}}
 
+
<poem>
[[रश्मिरथी / प्रथम सर्ग  /  भाग  6|<< प्रथम सर्ग  /  भाग  6]] | [[रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग  /  भाग  1| द्वितीय सर्ग  /  भाग  1 >>]]
+
 
+
 
+
 
'जनमे नहीं जगत् में अर्जुन! कोई प्रतिबल तेरा,
 
'जनमे नहीं जगत् में अर्जुन! कोई प्रतिबल तेरा,
 
 
टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
 
टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
 
 
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
 
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
 
 
रखा चाहता हूँ निष्कंटक बेटा! तेरी राह।
 
रखा चाहता हूँ निष्कंटक बेटा! तेरी राह।
  
 
+
'मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,
'मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,
+
 
+
 
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
 
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
 
+
बढ़ता गया अगर निष्कंटक यह उद्भट भट बांल,
बढ़ता गया अगर निष्कंटक यह उद्‌भट भट बांल,
+
 
+
 
अर्जुन! तेरे लिये कभी यह हो सकता है काल!
 
अर्जुन! तेरे लिये कभी यह हो सकता है काल!
 
  
 
'सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा,
 
'सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा,
 
 
इस प्रचंडतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा?
 
इस प्रचंडतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा?
 
 
शिष्य बनाऊँगा न कर्ण को, यह निश्चित है बात;
 
शिष्य बनाऊँगा न कर्ण को, यह निश्चित है बात;
 
 
रखना ध्यान विकट प्रतिभट का, पर तू भी हे तात!'
 
रखना ध्यान विकट प्रतिभट का, पर तू भी हे तात!'
 
  
 
रंग-भूमि से लिये कर्ण को, कौरव शंख बजाते,
 
रंग-भूमि से लिये कर्ण को, कौरव शंख बजाते,
 
 
चले झूमते हुए खुशी में गाते, मौज मनाते।
 
चले झूमते हुए खुशी में गाते, मौज मनाते।
 
 
कञ्चन के युग शैल-शिखर-सम सुगठित, सुघर सुवर्ण,
 
कञ्चन के युग शैल-शिखर-सम सुगठित, सुघर सुवर्ण,
 
 
गलबाँही दे चले परस्पर दुर्योधन औ' कर्ण।
 
गलबाँही दे चले परस्पर दुर्योधन औ' कर्ण।
 
  
 
बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से,
 
बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से,
 
 
चूम रहे थे अंग पुत्र का स्निग्ध-सुकोमल कर से।
 
चूम रहे थे अंग पुत्र का स्निग्ध-सुकोमल कर से।
 
 
आज न था प्रिय उन्हें दिवस का समय सिद्ध अवसान,
 
आज न था प्रिय उन्हें दिवस का समय सिद्ध अवसान,
 
 
विरम गया क्षण एक क्षितिज पर गति को छोड़ विमान।
 
विरम गया क्षण एक क्षितिज पर गति को छोड़ विमान।
 
  
 
और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,
 
और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,
 
 
सबके पीछे चली एक विकला मसोसती मन को।
 
सबके पीछे चली एक विकला मसोसती मन को।
 
 
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हो दाँव,
 
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हो दाँव,
 
 
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।
 
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।
 
+
</poem>
 
+
[[रश्मिरथी / प्रथम सर्ग  /  भाग  6|<< प्रथम सर्ग  / भाग  6]] | [[रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग  /  भाग  1| द्वितीय सर्ग  /  भाग  1 >>]]
+

22:23, 29 अगस्त 2020 के समय का अवतरण

'जनमे नहीं जगत् में अर्जुन! कोई प्रतिबल तेरा,
टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
रखा चाहता हूँ निष्कंटक बेटा! तेरी राह।

'मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
बढ़ता गया अगर निष्कंटक यह उद्भट भट बांल,
अर्जुन! तेरे लिये कभी यह हो सकता है काल!

'सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा,
इस प्रचंडतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा?
शिष्य बनाऊँगा न कर्ण को, यह निश्चित है बात;
रखना ध्यान विकट प्रतिभट का, पर तू भी हे तात!'

रंग-भूमि से लिये कर्ण को, कौरव शंख बजाते,
चले झूमते हुए खुशी में गाते, मौज मनाते।
कञ्चन के युग शैल-शिखर-सम सुगठित, सुघर सुवर्ण,
गलबाँही दे चले परस्पर दुर्योधन औ' कर्ण।

बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से,
चूम रहे थे अंग पुत्र का स्निग्ध-सुकोमल कर से।
आज न था प्रिय उन्हें दिवस का समय सिद्ध अवसान,
विरम गया क्षण एक क्षितिज पर गति को छोड़ विमान।

और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,
सबके पीछे चली एक विकला मसोसती मन को।
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हो दाँव,
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।