भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"स्नो फॉल / ऋषभ देव शर्मा" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
ऋषभ देव शर्मा (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा |संग्रह= }} <Poem> लटकती रहती हैं फि़र...) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
}} | }} | ||
<Poem> | <Poem> | ||
− | |||
− | |||
लटकती रहती हैं | लटकती रहती हैं | ||
− | |||
फि़रन की खाली बाँहें, | फि़रन की खाली बाँहें, | ||
− | |||
हाथ सटाए रखते हैं | हाथ सटाए रखते हैं | ||
− | |||
कांगड़ी को पेट से, | कांगड़ी को पेट से, | ||
− | |||
राख में दबे अंगारे | राख में दबे अंगारे | ||
− | |||
झुलसा देते हैं | झुलसा देते हैं | ||
− | |||
नर्म गुलाबी जि़ल्द को | नर्म गुलाबी जि़ल्द को | ||
− | |||
सख्त काली होने तक. | सख्त काली होने तक. | ||
− | |||
और फुहिया बर्फ | और फुहिया बर्फ | ||
− | |||
कुछ और सफेद हो जाती है | कुछ और सफेद हो जाती है | ||
− | |||
स्याह और सुर्ख पर गिरकर ! | स्याह और सुर्ख पर गिरकर ! | ||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
</poem> | </poem> |
03:36, 22 अप्रैल 2009 के समय का अवतरण
लटकती रहती हैं
फि़रन की खाली बाँहें,
हाथ सटाए रखते हैं
कांगड़ी को पेट से,
राख में दबे अंगारे
झुलसा देते हैं
नर्म गुलाबी जि़ल्द को
सख्त काली होने तक.
और फुहिया बर्फ
कुछ और सफेद हो जाती है
स्याह और सुर्ख पर गिरकर !