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"आग के फूल / सुभाष मुखोपाध्याय" के अवतरणों में अंतर
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दीवारें गिर रही हैं -- | दीवारें गिर रही हैं -- | ||
हट जाओ। | हट जाओ। |
22:24, 26 अप्रैल 2009 के समय का अवतरण
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सिर पर तूफ़ान उठाए हम लोग आ रहे हैं
मैदान के कीचड़ से सने फटे पैर लिए
धारदार पत्थरों पर
आग के फूल लेकर आ रहे हैं हम।
हमारी आँखों में पानी था
आग है अब।
उभरी हड्डियों वाले पंजर
अब
वज्र बनाने के कारख़ाने हैं।
जिनकी संगीनों में चमक रही है बिजली
वे हट जाएँ सामने से
हमारे चौड़े कंधों से टकराकर
दीवारें गिर रही हैं --
हट जाओ।
गाँव ख़ाली करके हम आ रहे हैं
हम ख़ाली हाथ नहीं लौटेंगे।
मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी