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"अछूत / रामकुमार वर्मा" के अवतरणों में अंतर

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"तू अछूत है - दूर !" सदा जो कह चिल्लाते
 
"तू अछूत है - दूर !" सदा जो कह चिल्लाते
 
 
"मुझे न छू" कह नाक-भौंह जो सदा चढ़ाते  
 
"मुझे न छू" कह नाक-भौंह जो सदा चढ़ाते  
 
 
दिन में दो-दो बार स्नान हैं करने वाले  
 
दिन में दो-दो बार स्नान हैं करने वाले  
 
 
ऊपर तो अति शुद्ध किन्तु है मन में काले  
 
ऊपर तो अति शुद्ध किन्तु है मन में काले  
 
 
वे पंडित जी समझते हैं, पापी यही अछूत हैं  
 
वे पंडित जी समझते हैं, पापी यही अछूत हैं  
 
 
किन्तु समझते हैं नहीं, एकलव्य के पूत हैं  
 
किन्तु समझते हैं नहीं, एकलव्य के पूत हैं  
 
 
  
 
ये अछूत यदि काम आज से छोड़ें
 
ये अछूत यदि काम आज से छोड़ें
 
 
अत्याचारी उक्त जनों के हाथ न जोड़ें  
 
अत्याचारी उक्त जनों के हाथ न जोड़ें  
 
 
प्रतिदिन इनके सदन झाड़ना यदि वे त्यागें  
 
प्रतिदिन इनके सदन झाड़ना यदि वे त्यागें  
 
 
वे भी अपना जन्म-स्वत्व यदि निर्भय माँगें  
 
वे भी अपना जन्म-स्वत्व यदि निर्भय माँगें  
 
 
तो फिर लगाने न पायेंगे, तिलक विप्र जी माथ में  
 
तो फिर लगाने न पायेंगे, तिलक विप्र जी माथ में  
 
 
बस, लेना ही पड़ जायगी, डलिया-झाड़ू हाथ में  
 
बस, लेना ही पड़ जायगी, डलिया-झाड़ू हाथ में  
 
 
  
 
इसीलिए मत शीघ्र मान लें गांधी जी का  
 
इसीलिए मत शीघ्र मान लें गांधी जी का  
 
 
यह समाज है अंग हमारे जीवन का ही  
 
यह समाज है अंग हमारे जीवन का ही  
 
 
भेद-भाव सब दूर हटा कर गले लगाओ  
 
भेद-भाव सब दूर हटा कर गले लगाओ  
 
 
इन्हें शुद्र मत कहो पास इनको बिठलाओ  
 
इन्हें शुद्र मत कहो पास इनको बिठलाओ  
 
 
धरा सजाने के लिए यही स्वर्ग के दूत हैं  
 
धरा सजाने के लिए यही स्वर्ग के दूत हैं  
 
 
भाई हैं अपने सदा, नहीं दरिद्र अछूत हैं  
 
भाई हैं अपने सदा, नहीं दरिद्र अछूत हैं  
  
 
(1922)
 
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14:59, 8 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

"तू अछूत है - दूर !" सदा जो कह चिल्लाते
"मुझे न छू" कह नाक-भौंह जो सदा चढ़ाते
दिन में दो-दो बार स्नान हैं करने वाले
ऊपर तो अति शुद्ध किन्तु है मन में काले
वे पंडित जी समझते हैं, पापी यही अछूत हैं
किन्तु समझते हैं नहीं, एकलव्य के पूत हैं

ये अछूत यदि काम आज से छोड़ें
अत्याचारी उक्त जनों के हाथ न जोड़ें
प्रतिदिन इनके सदन झाड़ना यदि वे त्यागें
वे भी अपना जन्म-स्वत्व यदि निर्भय माँगें
तो फिर लगाने न पायेंगे, तिलक विप्र जी माथ में
बस, लेना ही पड़ जायगी, डलिया-झाड़ू हाथ में

इसीलिए मत शीघ्र मान लें गांधी जी का
यह समाज है अंग हमारे जीवन का ही
भेद-भाव सब दूर हटा कर गले लगाओ
इन्हें शुद्र मत कहो पास इनको बिठलाओ
धरा सजाने के लिए यही स्वर्ग के दूत हैं
भाई हैं अपने सदा, नहीं दरिद्र अछूत हैं

(1922)