भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"तुम न आये एक दिन / ज़फ़र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
हेमंत जोशी (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह= | |संग्रह= | ||
}} | }} | ||
+ | [[Category:ग़ज़ल]] | ||
+ | <poem> | ||
+ | तुम न आये एक दिन का वादा कर दो दिन तलक | ||
+ | हम पड़े तड़पा किये दो-दो पहर दो दिन तलक | ||
− | + | दर्द-ए-दिल अपना सुनाता हूँ कभी जो एक दिन | |
− | + | रहता है उस नाज़नीं को दर्द-ए-सर दो दिन तलक | |
− | + | देखते हैं ख़्वाब में जिस दिन किसू की चश्म-ए-मस्त | |
− | + | रहते हैं हम दो जहाँ से बेख़बर दो दिन तलक | |
− | + | गर यक़ीं हो ये हमें आयेगा तू दो दिन के बाद | |
− | + | तो जियें हम और इस उम्मीद पर दो दिन तलक | |
− | + | क्या सबब क्या वास्ता क्या काम था बतलाइये | |
− | + | घर से जो निकले न अपने तुम "ज़फ़र" दो दिन तलक | |
− | + | </poem> | |
− | क्या सबब क्या वास्ता क्या काम था बतलाइये | + | |
− | घर से जो निकले न अपने तुम "ज़फ़र" दो दिन तलक< | + |
12:06, 15 अगस्त 2009 के समय का अवतरण
तुम न आये एक दिन का वादा कर दो दिन तलक
हम पड़े तड़पा किये दो-दो पहर दो दिन तलक
दर्द-ए-दिल अपना सुनाता हूँ कभी जो एक दिन
रहता है उस नाज़नीं को दर्द-ए-सर दो दिन तलक
देखते हैं ख़्वाब में जिस दिन किसू की चश्म-ए-मस्त
रहते हैं हम दो जहाँ से बेख़बर दो दिन तलक
गर यक़ीं हो ये हमें आयेगा तू दो दिन के बाद
तो जियें हम और इस उम्मीद पर दो दिन तलक
क्या सबब क्या वास्ता क्या काम था बतलाइये
घर से जो निकले न अपने तुम "ज़फ़र" दो दिन तलक