"रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 2" के अवतरणों में अंतर
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श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है, | श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है, | ||
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युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है। | युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है। | ||
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हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार? | हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार? | ||
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जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार? | जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार? | ||
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आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को? | आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को? | ||
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या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को? | या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को? | ||
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मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है? | मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है? | ||
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या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है? | या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है? | ||
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परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार, | परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार, | ||
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क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार। | क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार। | ||
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तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है, | तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है, | ||
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तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है। | तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है। | ||
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किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला? | किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला? | ||
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एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला? | एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला? | ||
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कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा, | कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा, | ||
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रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा! | रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा! | ||
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मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल, | मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल, | ||
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शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल। | शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल। | ||
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यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का, | यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का, | ||
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भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का। | भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का। | ||
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हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर, | हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर, | ||
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सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर। | सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर। | ||
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पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है, | पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है, | ||
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पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है। | पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है। | ||
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22:35, 29 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,
युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है।
हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार?
जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार?
आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को?
या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को?
मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है?
या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है?
परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार,
क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।
तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है,
तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है।
किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला?
एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला?
कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा,
रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा!
मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,
शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल।
यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का,
भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।
हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,
सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर।
पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,
पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।