"रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 7" के अवतरणों में अंतर
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'हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ? | 'हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ? | ||
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कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ? | कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ? | ||
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धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान? | धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान? | ||
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जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान? | जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान? | ||
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'नहीं पूछता है कोई तुम व्रती , वीर या दानी हो? | 'नहीं पूछता है कोई तुम व्रती , वीर या दानी हो? | ||
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सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो? | सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो? | ||
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मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं, | मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं, | ||
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चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं। | चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं। | ||
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'मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर, | 'मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर, | ||
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कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर, | कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर, | ||
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तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है; | तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है; | ||
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नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है? | नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है? | ||
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'कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात, | 'कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात, | ||
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छोटे कुल पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात! | छोटे कुल पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात! | ||
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हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे, | हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे, | ||
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जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे।' | जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे।' | ||
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गुरु को लिए कर्ण चिन्तन में था जब मग्न, अचल बैठा, | गुरु को लिए कर्ण चिन्तन में था जब मग्न, अचल बैठा, | ||
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तभी एक विषकीट कहीं से आसन के नीचे पैठा। | तभी एक विषकीट कहीं से आसन के नीचे पैठा। | ||
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वज्रदंष्ट्र वह लगा कर्ण के उरु को कुतर-कुतर खाने, | वज्रदंष्ट्र वह लगा कर्ण के उरु को कुतर-कुतर खाने, | ||
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और बनाकर छिद्र मांस में मन्द-मन्द भीतर जाने। | और बनाकर छिद्र मांस में मन्द-मन्द भीतर जाने। | ||
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कर्ण विकल हो उठा, दुष्ट भौरे पर हाथ धरे कैसे, | कर्ण विकल हो उठा, दुष्ट भौरे पर हाथ धरे कैसे, | ||
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बिना हिलाये अंग कीट को किसी तरह पकड़े कैसे? | बिना हिलाये अंग कीट को किसी तरह पकड़े कैसे? | ||
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पर भीतर उस धँसे कीट तक हाथ नहीं जा सकता था, | पर भीतर उस धँसे कीट तक हाथ नहीं जा सकता था, | ||
− | + | बिना उठाये पाँव शत्रु को कर्ण नहीं पा सकता था। | |
− | बिना उठाये पाँव शत्रु को कर्ण | + | </poem> |
22:42, 29 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
'हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ?
कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ?
धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान?
जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान?
'नहीं पूछता है कोई तुम व्रती , वीर या दानी हो?
सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?
मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं,
चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।
'मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर,
कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर,
तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है;
नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है?
'कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात,
छोटे कुल पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात!
हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे,
जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे।'
गुरु को लिए कर्ण चिन्तन में था जब मग्न, अचल बैठा,
तभी एक विषकीट कहीं से आसन के नीचे पैठा।
वज्रदंष्ट्र वह लगा कर्ण के उरु को कुतर-कुतर खाने,
और बनाकर छिद्र मांस में मन्द-मन्द भीतर जाने।
कर्ण विकल हो उठा, दुष्ट भौरे पर हाथ धरे कैसे,
बिना हिलाये अंग कीट को किसी तरह पकड़े कैसे?
पर भीतर उस धँसे कीट तक हाथ नहीं जा सकता था,
बिना उठाये पाँव शत्रु को कर्ण नहीं पा सकता था।