भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"क़त्ले-आफ़ताब / अली सरदार जाफ़री" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अली सरदार जाफ़री }} <poem> क़त्ले-आफ़ताब ========= शफ़क़१ ...)
 
छो
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 6 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=अली सरदार जाफ़री
 
|रचनाकार=अली सरदार जाफ़री
 +
|संग्रह=मेरा सफ़र / अली सरदार जाफ़री
 +
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatNazm}}
 
<poem>
 
<poem>
  
क़त्ले-आफ़ताब
 
=========
 
  
शफ़क़१ के रंग में है क़त्ले-आफ़ताब का रंग
+
शफ़क़<ref>सवेरे या शाम के समय क्षितिज की लालिमा </ref>के रंग में है क़त्ले-आफ़ताब<ref>सूर्य का वध</ref> का रंग
उफ़ुक२ के दिल में है ख़ंजर, लहूलुहान है शाम
+
उफ़ुक़<ref>क्षितिज </ref> के दिल में है ख़ंजर, लहूलुहान है शाम
सफ़ेद शीशा-ए-नूर और सिया बारिशे-संग
+
सफ़ेद शीशा-ए-नूर और सिया बारिशे-संग<ref>पत्थरों की बारिश </ref>
ज़मीं से ता-ब-फ़लक है बलन्द रात का नाम
+
ज़मीं से ता-ब-फ़लक<ref>धरती से क्षितिज तक </ref> है बलन्द रात का नाम
  
 
यकीं का ज़िक्र ही क्या है कि अब गुमाँ भी नहीं
 
यकीं का ज़िक्र ही क्या है कि अब गुमाँ भी नहीं
 
मका़मे-दर्द नहीं, मंज़िले-फ़ुगाँ भी नहीं
 
मका़मे-दर्द नहीं, मंज़िले-फ़ुगाँ भी नहीं
वो बेहिसी३ है कि जो क़ाबिले-बयाँ भी नहीं
+
वो बेहिसी<ref> चेतना या एहसास का अभाव</ref> है कि जो क़ाबिले-बयाँ भी नहीं
 
कोई तरंग ही बाक़ी रही न कोई उमंग
 
कोई तरंग ही बाक़ी रही न कोई उमंग
जबीने-शौक़ नहीं संगे-आस्ताँ भी नहीं
+
जबीने-शौक़<ref>चाव से झुकने वाला माथा </ref> नहीं संगे-आस्ताँ<ref>दहलीज़ का पत्थर (झुकने के लिए)</ref>भी नहीं
रक़ीब जीत गये ख़त्म हो चुकी है जंग
+
रक़ीब<ref>प्रतिद्वन्द्वी</ref> जीत गये ख़त्म हो चुकी है जंग
हज़ार लब से जुनू सुन रहे हैं अफ़साना
+
हज़ार लब से जुनूँ सुन रहे हैं अफ़साना
  
 
दिलों में शो’ला-ए-ग़म बुझ गया है क्या कीजे
 
दिलों में शो’ला-ए-ग़म बुझ गया है क्या कीजे
पंक्ति 26: पंक्ति 27:
  
 
मगर ये जंग नहीं वो जो ख़त्म हो जाए
 
मगर ये जंग नहीं वो जो ख़त्म हो जाए
इक इन्तिहा है फ़क़त हुस्ने-इब्तिदा के लिए
+
इक इन्तिहा<ref>समाप्ति,समापन </ref> है फ़क़त हुस्ने-इब्तिदा<ref>केवल शुभारम्भ के सौंदर्य के लिए </ref> के लिए
बिछे हैं खा़र कि गुज़रेंगे क़ाफ़िले गुल के
+
बिछे हैं ख़ार कि गुज़रेंगे क़ाफ़िले गुल के
क़मोशी मुह्र-ब-लब४ है किसी सदा के लिए
+
ख़मोशी मुह्र-ब-लब<ref> स्तब्ध,मौन,चुपी की मुहर लगवाए हुए </ref>है किसी सदा के लिए
उदासियाँ हैं ये सब नग़मःओ-नवा५ के लिए
+
उदासियाँ हैं ये सब नग़मःओ-नवा<ref>गीत और स्वर </ref> के लिए
  
 
वो पहना शम्‌अ़ ने फिर ख़ूने-आफ़ताव का ताज
 
वो पहना शम्‌अ़ ने फिर ख़ूने-आफ़ताव का ताज
सितारे ले के उठे नूरे-आफ़ताब के जाम
+
सितारे ले के उठे नूरे-आफ़ताब<ref>सूर्य के प्रकाश</ref> के जाम
पलक-पलक पे फ़ुरोज़ाँ६ हैं आँसुओं के चिराग़
+
पलक-पलक पे फ़िरोज़ाँ<ref>आलोकित </ref> हैं आँसुओं के चिराग़
 
लबें चमकती हैं या बिजलियाँ चमकती हैं
 
लबें चमकती हैं या बिजलियाँ चमकती हैं
तमाम पैरहने-शब में भर गए हैं शरार
+
तमाम पैरहने-शब<ref>रात्रि के वस्त्रों </ref>  में भर गए हैं शरार<ref>अंगारे</ref>
  
 
चटक रही हैं कहीं तीरगी की दीवारें
 
चटक रही हैं कहीं तीरगी की दीवारें
लचक रही हैं कहीं शाखे़-गुल की तलवारें
+
लचक रही हैं कहीं शाख़े-गुल की तलवारें
 
सनक रही हैं कहीं दश्ते-सरकशी में हवा
 
सनक रही हैं कहीं दश्ते-सरकशी में हवा
 
चहक रही है कहीं बुलबुले-बहारे-नवा
 
चहक रही है कहीं बुलबुले-बहारे-नवा
महक रहा है लबो-आरिज़ो-नज़र की शराब
+
महक रही है लबो-आरिज़ो-नज़र<ref>होंठों,गालों और आँखों </ref>  की शराब
  
 
जवान ख़्वाबों के जंगल से आ रही है नसीम
 
जवान ख़्वाबों के जंगल से आ रही है नसीम
नफ़स में नक्‌हते-पैग़ामे-इन्क़िलाब७ लिए
+
नफ़स में निक़हते-पैग़ामे-इन्क़िलाब<ref>इन्क़िलाब के पैग़ाम की ख़ुशबू </ref> लिए
 
ख़बर है क़ाफ़िलः-ए-रंगो-नूर निकलेगा
 
ख़बर है क़ाफ़िलः-ए-रंगो-नूर निकलेगा
सहर के दोश८ पे इक ताज़ा आफ़ताब लिए
+
सहर के दोश पे<ref>काँधे पर </ref> इक ताज़ा आफ़ताब लिए
-----------------------------------------------
+
 
१.सवेरे या शाम के समय क्षितिज की लालिमा २.क्षितिज ३.चेतना या एहसास का अभाव ४.स्तब्ध,मौन ५.गीत और स्वर ६.आलोकित ७.इन्क़िलाब के पगा़म की ख़ुशबू ८.कन्धा
+
 
<poem>
+
</poem>
 +
{{KKMeaning}}

15:25, 6 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण



शफ़क़<ref>सवेरे या शाम के समय क्षितिज की लालिमा </ref>के रंग में है क़त्ले-आफ़ताब<ref>सूर्य का वध</ref> का रंग
उफ़ुक़<ref>क्षितिज </ref> के दिल में है ख़ंजर, लहूलुहान है शाम
सफ़ेद शीशा-ए-नूर और सिया बारिशे-संग<ref>पत्थरों की बारिश </ref>
ज़मीं से ता-ब-फ़लक<ref>धरती से क्षितिज तक </ref> है बलन्द रात का नाम

यकीं का ज़िक्र ही क्या है कि अब गुमाँ भी नहीं
मका़मे-दर्द नहीं, मंज़िले-फ़ुगाँ भी नहीं
वो बेहिसी<ref> चेतना या एहसास का अभाव</ref> है कि जो क़ाबिले-बयाँ भी नहीं
कोई तरंग ही बाक़ी रही न कोई उमंग
जबीने-शौक़<ref>चाव से झुकने वाला माथा </ref> नहीं संगे-आस्ताँ<ref>दहलीज़ का पत्थर (झुकने के लिए)</ref>भी नहीं
रक़ीब<ref>प्रतिद्वन्द्वी</ref> जीत गये ख़त्म हो चुकी है जंग
हज़ार लब से जुनूँ सुन रहे हैं अफ़साना

दिलों में शो’ला-ए-ग़म बुझ गया है क्या कीजे
कोई हसीन नहीं किससे अब वफ़ा कीजे
सिवाय इसके कि क़ातिल ही को दुआ दीजे

मगर ये जंग नहीं वो जो ख़त्म हो जाए
इक इन्तिहा<ref>समाप्ति,समापन </ref> है फ़क़त हुस्ने-इब्तिदा<ref>केवल शुभारम्भ के सौंदर्य के लिए </ref> के लिए
बिछे हैं ख़ार कि गुज़रेंगे क़ाफ़िले गुल के
ख़मोशी मुह्र-ब-लब<ref> स्तब्ध,मौन,चुपी की मुहर लगवाए हुए </ref>है किसी सदा के लिए
उदासियाँ हैं ये सब नग़मःओ-नवा<ref>गीत और स्वर </ref> के लिए

वो पहना शम्‌अ़ ने फिर ख़ूने-आफ़ताव का ताज
सितारे ले के उठे नूरे-आफ़ताब<ref>सूर्य के प्रकाश</ref> के जाम
पलक-पलक पे फ़िरोज़ाँ<ref>आलोकित </ref> हैं आँसुओं के चिराग़
लबें चमकती हैं या बिजलियाँ चमकती हैं
तमाम पैरहने-शब<ref>रात्रि के वस्त्रों </ref> में भर गए हैं शरार<ref>अंगारे</ref>

चटक रही हैं कहीं तीरगी की दीवारें
लचक रही हैं कहीं शाख़े-गुल की तलवारें
सनक रही हैं कहीं दश्ते-सरकशी में हवा
चहक रही है कहीं बुलबुले-बहारे-नवा
महक रही है लबो-आरिज़ो-नज़र<ref>होंठों,गालों और आँखों </ref> की शराब

जवान ख़्वाबों के जंगल से आ रही है नसीम
नफ़स में निक़हते-पैग़ामे-इन्क़िलाब<ref>इन्क़िलाब के पैग़ाम की ख़ुशबू </ref> लिए
ख़बर है क़ाफ़िलः-ए-रंगो-नूर निकलेगा
सहर के दोश पे<ref>काँधे पर </ref> इक ताज़ा आफ़ताब लिए

शब्दार्थ
<references/>