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यह एशिया की ज़मीं, तमद्दुन की कोख, तहज़ीब का वतन है | यह एशिया की ज़मीं, तमद्दुन की कोख, तहज़ीब का वतन है |
13:29, 6 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
यह एशिया की ज़मीं, तमद्दुन की कोख, तहज़ीब का वतन है
यहीं पे सूरज ने आँख खोली
यहीं पे इन्सानियत की पहली सहर ने रूख़ से नका़ब उलटा
यहीं से अगले युगों की शम्ओं ने इल्म-ओ-हिकमत का नूर पाया
इसी बलन्दी से वेद ने ज़मज़मे सुनाये
यहीं से गौतम ने आदमी की समानता का सबक़ पढा़या
हमारी तारीख़ की हवाएँ मसीह के बोल सुन चुकी है
हमारा सूरज मुहम्मदे-मुस्तफ़ा के सर पर चमक चुका है
और अब हमारे क़दीम आकाश के सितारे
क़दीम आँखों से एशिया की नयी जवानी को देखते हैं
यह खा़क वह खा़क है कि जिसने
सुनहरे गेहूँ के मोतियों को जनम दिया है
यह खा़क इतनी क़दीम जितनी क़दीम इन्साँ की दास्तानें
अज़ीम इतनी अज़ीम जितनी हिमालया की बलन्दियाँ हैं
हसीन इतनी हसीन जितनी हसीं अजन्ता की अप्सराएँ
यह अपनी फ़ैयाज़ियों<ref>दानशीलता</ref> में दरयाए-नील-ओ-गंगा से कम नहीं है
यह गोद बच्चों से और फूलों से और फलों से भरी हुई है।
हमारा विरसा मोहनजोदाडो़ से लेके दीवारे-चीन तक है
हमारी तारीख़ ताज और सीकरी से अहरामे-मिस्र तक है
हमें रिवायात के ख़्ज़ानों से बाविलो-नीनवा मिले हैं
फ़साहतों<ref>औचित्य</ref> ने हमारे बचपन के होंट चूमे
बलाग़तों<ref>प्रसंगानुकूल बात</ref> ने बडी़ हसीं लोरियाँ सुनायीं
ज़बान खोली तो वेद, इंजील और क़ुर्आन बन के बोले
हमारी तख़ईल<ref>कल्पनाशक्ति</ref> आसमानों की उस बलन्दी को छू चुकी है
जहाँ से फ़िरदौसी और सा’दी
निज़ामी, ख़ैयाम और हाफ़िज़ के चाँद सूरज चमक रहे हैं
बलन्दियाँ जिन पे वाल्मीक और पाक तुलसी
कबीर और सूर हुक्मराँ हैं
उन्हीं फ़ज़ाओं की बिजलियाँ हैं
जो साज़े-इक़बाल और टैगोर के तरानों में गूँजती हैं
२
गुज़र चुके हैं हमारे सर से
हज़ारों सालों के तुन्द<ref>प्रचण्ड</ref> तूफ़ां
मुसीबतों की हवाएँ, जुल्मो-सितम की आँधी
मगर यह अनमोल खा़क फिर भी हसीन फिर भी जवाँ रही है
हमारे रुस्तुम हमारे अर्जुन मरे नहीं हैं
वह जंगलों और पहाड़ियों में ज़मीन पर काश्त कर रहे हैं
हमारे फ़रहाद भी तीशे चला रहे हैं
जवान लैला, हसीन शीरीं, कुँवारी हीर अब भी गा रही हैं
शकुंतलाएँ घनेरे पेड़ों के सब्ज़ साये में नाचती हैं
हम एशिया के अवाम सूरज की तरह डूबे हैं और उभरे
दुखों की अग्नि में तप के निखरे
हमारी आँखों के आगे कितनी सियाह सदियों की साँस टूटी
न जाने कितने बलन्द परचम
हमारी नज़रों के सामने सरनिगूँ<ref>सर झुकाए हुए</ref> हुए हैं
उलटते देखे हैं ताज हमने
हमारे सीने से जाने कितने रथों के पहिये गुज़र चुके हैं
मगर हम इस भूक, क़त्ल, इफ़लास<ref>कंगाली</ref> के अंधेरे
हवादिसे-रोज़गार<ref>रोज़गार की समस्याएँ</ref> के तुन्दो-तेज़<ref>तेज़ लपकते हुए और भड़कते हुए</ref> शो’लों में अनगिनत जन्म ले चुके हैं
हम अपनी धरती की कोख में बीज की तरह दफ़्न हो गये थे
मगर नयी सुबह की हवा में
बहार की कोंपलों में तब्दील होके बाहर निकल पडे़
यह एशिया की ज़मीं, तमद्दुन की कोख, तहज़ीब का वतन है
जबीं पे तारों का ताज, पैरों में झाग की झाँझनों का नग़मा
ज़मीन-सदियों पुराने हाथों में अपने लकडी़ के हल सँभाले
गरीब मज़दूर, जलती आँखें
उचाट नींदों की तल्ख़<ref>कड़वी, नागवार</ref> रातें
थके हुए हाथ, भाप का ज़ोर, गर्म फ़ौलाद की रवानी
जहाज़, मल्लाह, गीत, तूफ़ाँ
कुम्हार, लोहार, चाक, बरतन
ग्वालनें दूध में नहायी
अलावों के गिर्द बूढ़े अफ़साना-गो, कहानी
जवान माँओं की गोद में नन्हे-नन्हे बच्चों के भोले चेहरे
लहकते मैदान, गायें, भैंसें
फ़ज़ाओं में बाँसुरी का लहरा
हरी-भरी खेतियों में शीशे की चूड़ियाँ खनखना रही हैं
उदास सहरा पयम्बरों की तरह से खा़मोश और गम्भीर
खजूर के पेड़ बाल खोले
दफ़ों की आवाज़ ढोलकों की गमक
समन्दर के क़हक़हे नारियल के पेड़ों की सर्द आहें
सितार के तार से बरसते हुए सितारे
अनार के फूल, आम का बौर, सेबो-बादाम के शुगूफ़े
कोठार, खलियान, खाद के ढेर, कुँवारी पगडण्डियों की गर्दिश
बलन्द बाँसों के झुण्ड हँसती धनक के नीचे
घनेरे जंगल
पठार, मैदान, रेगज़ारों<ref>मरुस्थल</ref> के गर्म सीने
गुफ़ाएँ जन्नत की तरह ठण्डी
समन्दरों में कँवल के फूलों की तरह रखे हुए जज़ीरे
चमकते मूँगों की मुस्कराहट
वो सीपियों की हँसी, वह सन्थाल लड़कियों के चमकते दाँतों की तरह मोती
वो मछलियाँ गोश्त से भरी कश्तियाँ जो पिघली
सफ़ेद चाँदनी में तैरती हैं
वो लम्बी-लम्बी हसीन नदियाँ
जो अपनी मौजों से साहिलों के लरज़ते होंटों को चूमती हैं
दुल्हन बनी वादियों की नाज़ुक कमर में झरनों के नर्म हल्के़
पहाडि़यों की हथेलियों पर धरे हुए नीलगूँ कटोरे
सितारे मुँह देखते हैं झीलों के आईने में
हिमालया के गले में गंगा की और जमुना की शोख़ बाँहें
पहाड़ की आँधियों के माथों पे बर्फ़ के नीलगूँ दुपट्टे
बलन्दियों पर ख़फ़ीफ़-सा<ref>थोडा</ref> इर्तिआ़श<ref>कम्पन</ref> हलकी-सी रागिनी का
यह एशिया है, जवान, शादाब और धनवान एशिया है
कि जिसके निर्धन ग़रीब बच्चों को भूक के नाग डस रहे हैं
वो होंट जो माँ के दूध के बाद फिर न वाकि़फ़ हुए
कभी दूध के मज़े से
ज़बानें ऐसी जिन्होंने चक्खा नहीं है, गेहूँ की रोटियों को
वह पीठ जिसने सफ़ेद कपडा़ छुआ नहीं है
वो उँगलियाँ जो किताब से मस नहीं हुई हैं
वो पैर जो बूट और स्लीपर की शक्ल पहचानते नहीं हैं
वो सर जो तकियों की नर्म लज़्ज़त से बेख़बर हैं
वो पेट जो भूक ही को भोजन समझ रहे हैं
ये नादिरे-रोज़गार<ref>दुनिया भर में सब से श्रेष्ठ</ref> इंसाँ
तुम्हें फ़क़त एशिया की जन्नत ही में मिलेंगे
जो तीन सौ साल के ‘तमद्दुन’ के बाद भी ‘जानवर’रहे हैं
कहाँ हो ‘तहज़ीब और तमद्दुन’ की रौशनी लेके आनेवालो
तुम्हारी ‘तहज़ीब’ की नुमाइश है एशिया में
कहीं ज़माने में इस क़दर दर्दनाक चेहरे नहीं मिलेंगे
तुम्हारी शाहाना यादगारों से एशिया का
हर-एक कोना भरा हुआ है
कहीं पे मेहराबे-फ़त्ह बाँधी
कहीं रुऊ़नत<ref>स्वच्छंदता, उद्दण्डता</ref> की लाट उठाई
कहीं पे काँसे के घोडे़ ढाले
कहीं पे पत्थर के बुत बनाए
मगर यह ‘तहज़ीब और तमद्दुन’ की य़ादगारें कहीं नहीं हैं
बुलाओ अपने मुसव्विरों<ref>चित्रकारों</ref> और बुतगरों को
कहो कि इन दर्दनाक चेहरों से एक-इक म्यूज़ियम सजा दें
तुम्हारे कारे-अज़ीम को जाविदाँ<ref>हमेशा रहनेवाला, शाश्वत</ref> बना दें
अब एशिया की ज़मीं पे हाथों का एक जंगल उगा हुआ है
यह संगे-मरमर की, संगे-अस्वद की मुट्ठियाँ हैं
कँवल की कलियाँ, कपास के फूल, बम के और नारियल के गोले
कहाँ है ऐ नौ-अरूसे-सुब्हे-बहार<ref>वसन्त की सुबह रूपी नई दुल्हन</ref> आजा
हमारी बेताब मुट्ठियों में
शफ़क़ का सिन्दूर
चांद तारों के फूल
सिरनों की सुर्ख़ अफ़साँ भरी हुई है।