"परवीन शाकिर / अली सरदार जाफ़री" के अवतरणों में अंतर
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मासूम-ओ-हसीन-ओ-शोख़ राधा | मासूम-ओ-हसीन-ओ-शोख़ राधा |
10:04, 6 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
वह विद्यापति की शाइरी की
मासूम-ओ-हसीन-ओ-शोख़ राधा
वह अपने ख़याल का कन्हैया
उस शहर में ढूँढ़ने गई थी
दस्तूर था जिसका संगबारी
वह फ़ैज़-ओ-फ़िराक़ से ज़ियादः
तक़दीसे-बदन की नगमः-ख़्वाँ थी
तहज़ीबे-बदन की राज़दाँ थी
गुलनार लबों से गुलफ़िशाँ थी
लब-आशना लब ग़ज़ल के मिसरे
जिस्म-आशना जिस्म ऩज़्म-पैकर
लफ़ज़ों की हथेलियाँ हिनाई
तश्बीहों की उँगलियाँ गुलाबी
सरसब्ज़ ख़याल का गुलिस्ताँ
मुब्हम<ref>छुपे हुए, सूक्ष्म</ref>-से कुछ आँसुओं के चश्मे
आहों की वो हलकी-सी हवाएँ
सदबर्ग हवा में मुन्तशिर<ref>बिखरे हुए</ref> थे
तितली थी कि रक़्स कर रही थी
पुरशोर मुआफ़िक़त<ref>लाभ कमाना</ref> के बाज़ार
अफ़वाहें फ़रोख़्त कर रहे थे
वह अपनी शिकस्ता शख़्सीयत को
अशआर की चादरों के अन्दर
इस तरह समेटने लगी थी
एहसास में आ रही थी बुस्अत
नज़रों का उफ़क़ बदल रहा था
और दर्दे-जहाने-आदमीयत
टूटे हुए दिल में ढल रहा था
उस अलमे-कैफ़ो-कम में इक दिन
इक हादिसे का शिकार होकर
जब ख़ूँ का कफ़न पहन लिया तो
अड़तीस सलीबें नौहःख़्वाँ<ref>मातम करनेवाली</ref> थीं
ख़ामोश था कर्बे-ख़ुदकलामी
अब कुछ नहीं रह गया है बाक़ी
बाक़ी है सुखन की दिलनवाज़ी
जन्नत में है जश्ने-नौ का सामाँ
महफ़िल में मजाज़ओ-बायरन हैं
मौजूद हैं कीट्स और शैली
ये मर्गे-जवाँ के सारे आशिक़
खुश हैं कि ज़मीने-पाक से इक
नौमर्ग<ref>जिसकी युवावस्था में मृत्यु हुई थी</ref> बहार आ गई है
लिपटी हुई ख़ाक की है खुशबू
और सायःफ़िगन<ref>छाया करने वाले</ref> सहावे-रहमत<ref>कृपा के बादल</ref>