भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"यादें / मृत्युंजय प्रभाकर" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: छोटी-छोटी बातें याद रह जाती हैं जबकि भूल जाते हैं हम बड़े से बड़ा ...)
 
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=मृत्युंजय प्रभाकर
 +
}}
 +
 +
<poem>
 
छोटी-छोटी बातें याद रह जाती हैं
 
छोटी-छोटी बातें याद रह जाती हैं
 
 
जबकि भूल जाते हैं हम
 
जबकि भूल जाते हैं हम
 
 
बड़े से बड़ा सच  
 
बड़े से बड़ा सच  
 
  
 
जिनका नहीं है
 
जिनका नहीं है
 
 
मिट्टी जितना भी मोल
 
मिट्टी जितना भी मोल
 
 
या दखल  
 
या दखल  
 
 
आपके वर्तमान में
 
आपके वर्तमान में
 
 
वह याद भी कितना सालती है  
 
वह याद भी कितना सालती है  
 
 
कई बार  
 
कई बार  
 
  
 
याद है अभी भी  
 
याद है अभी भी  
 
+
गली में बीता बचपन
गाली में बीता बचपन
+
 
+
 
और खाई हुई मार
 
और खाई हुई मार
 
 
पिता, भाई या दोस्त के हाथों  
 
पिता, भाई या दोस्त के हाथों  
  
 
+
माँ और झाड़ू की स्मृतियाँ
मां और झाड़ू की स्मृतियां
+
आज भी दर्ज़ है
 
+
आज भी दर्ज है
+
 
+
 
मेरी पसलियों में   
 
मेरी पसलियों में   
 
  
 
कितना दर्द सहेजा होगा
 
कितना दर्द सहेजा होगा
 
 
मेरी आत्मा ने  
 
मेरी आत्मा ने  
 
 
इस सत्य के साक्षात्कार से  
 
इस सत्य के साक्षात्कार से  
 
+
कि माँ की झाड़ू  
कि मां की झाड़ू  
+
 
+
 
पीटने के काम भी आती है  
 
पीटने के काम भी आती है  
 
  
 
यादों में  
 
यादों में  
 
+
असंख्य सँकरी गलियाँ
असंख्य संकरी गलियां
+
 
+
 
निकलती हैं
 
निकलती हैं
 
 
गन्दी बजबजाती नालियों  
 
गन्दी बजबजाती नालियों  
 
 
और उपलों की दीवारों के बीच  
 
और उपलों की दीवारों के बीच  
 
  
 
गली के कोने पर
 
गली के कोने पर
 
 
दो माह के लिए खिला गुलाब भी
 
दो माह के लिए खिला गुलाब भी
 
 
अक्सर कचोट जाता है मेरा मन  
 
अक्सर कचोट जाता है मेरा मन  
 
  
 
अनगिन दबी इच्छाओं  
 
अनगिन दबी इच्छाओं  
 
 
व विकलांग सपनों की हूक
 
व विकलांग सपनों की हूक
 
+
अभी भी ताज़ी है  
अभी भी ताजी है  
+
 
+
  
 
एक अधूरे राष्ट्रनिर्माण परियोजना की
 
एक अधूरे राष्ट्रनिर्माण परियोजना की
 
+
अधूरी संतान हैं हम
अधूरे संतान हैं हम
+
 
+
 
जिन्हें कुछ भी पूरा नहीं हासिल  
 
जिन्हें कुछ भी पूरा नहीं हासिल  
 
  
 
यह सत्य भी उतना नहीं सालता
 
यह सत्य भी उतना नहीं सालता
 
 
जितनी की बचपन में भींगी यादें।  
 
जितनी की बचपन में भींगी यादें।  
 
 
  
मृत्युंजय प्रभाकर
 
  
12.07.08
+
'''रचनाकाल : 12.07.08
 +
</Poem>

19:46, 22 जून 2009 के समय का अवतरण

छोटी-छोटी बातें याद रह जाती हैं
जबकि भूल जाते हैं हम
बड़े से बड़ा सच

जिनका नहीं है
मिट्टी जितना भी मोल
या दखल
आपके वर्तमान में
वह याद भी कितना सालती है
कई बार

याद है अभी भी
गली में बीता बचपन
और खाई हुई मार
पिता, भाई या दोस्त के हाथों

माँ और झाड़ू की स्मृतियाँ
आज भी दर्ज़ है
मेरी पसलियों में

कितना दर्द सहेजा होगा
मेरी आत्मा ने
इस सत्य के साक्षात्कार से
कि माँ की झाड़ू
पीटने के काम भी आती है

यादों में
असंख्य सँकरी गलियाँ
निकलती हैं
गन्दी बजबजाती नालियों
और उपलों की दीवारों के बीच

गली के कोने पर
दो माह के लिए खिला गुलाब भी
अक्सर कचोट जाता है मेरा मन

अनगिन दबी इच्छाओं
व विकलांग सपनों की हूक
अभी भी ताज़ी है

एक अधूरे राष्ट्रनिर्माण परियोजना की
अधूरी संतान हैं हम
जिन्हें कुछ भी पूरा नहीं हासिल

यह सत्य भी उतना नहीं सालता
जितनी की बचपन में भींगी यादें।


रचनाकाल : 12.07.08