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"शब्दों से परे / वीरेंद्र मिश्र" के अवतरणों में अंतर

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शब्दों से परे-परे
 
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मन के घन भरे-भरे
 
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वर्षा की भूमिका कब से तैयार है
 
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हर मौसम बूंद का संचित विस्तार है
 
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उत्सुक ॠतुराजों की चिंता अब कौन करे
 
उत्सुक ॠतुराजों की चिंता अब कौन करे
  
 
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पीड़ा अनुभूति है वह कोई व्यक्ति नहीं
पीडा अनुभूति है वह कोई व्यक्ति नहीं
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दुख है वर्णनातीत संभव अभिव्यक्ति नहीं
 
दुख है वर्णनातीत संभव अभिव्यक्ति नहीं
 
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बादल युग आया है जंगल हैं हरे-हरे
बादल युग आया है जंगल है हरे-हरे
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मन का तो सरोकार है केवल याद से
 
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पहुँचते हैं द्वार-द्वार कितने ही हादसे
पहुंचते हैं द्वार-द्वार कितने ही हादसे
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भरी-भरी आँखों में सपने हैं डरे-डरे
 
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भरी-भरी आंखों में सपने है डरे-डरे
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10:48, 31 अगस्त 2009 के समय का अवतरण

शब्दों से परे-परे
मन के घन भरे-भरे

वर्षा की भूमिका कब से तैयार है
हर मौसम बूंद का संचित विस्तार है
उत्सुक ॠतुराजों की चिंता अब कौन करे

पीड़ा अनुभूति है वह कोई व्यक्ति नहीं
दुख है वर्णनातीत संभव अभिव्यक्ति नहीं
बादल युग आया है जंगल हैं हरे-हरे

मन का तो सरोकार है केवल याद से
पहुँचते हैं द्वार-द्वार कितने ही हादसे
भरी-भरी आँखों में सपने हैं डरे-डरे