"प्रकृति रमणीक है / जगदीश गुप्त" के अवतरणों में अंतर
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प्रकृति ममतालु है! | प्रकृति ममतालु है! | ||
दूधभरी वत्सलता से भीगी- | दूधभरी वत्सलता से भीगी- | ||
− | छाया का | + | छाया का आँचल पसारती, |
-ममता है! | -ममता है! | ||
स्निग्ध रश्मि-राखी के बंधन से बांधती, | स्निग्ध रश्मि-राखी के बंधन से बांधती, | ||
-निर्मल सहोदरा है! | -निर्मल सहोदरा है! | ||
− | + | बाँहों की वल्लरि से तन-तरू को | |
रोम-रोम कसती-सी! | रोम-रोम कसती-सी! | ||
− | औरों की | + | औरों की आँखों से बचा-बचा- |
− | दे जाती स्पर्शों के अनगूंथे फूलों की | + | दे जाती स्पर्शों के अनगूंथे फूलों की पंक्तियाँ- |
-प्रकृति प्रणयिनी है! | -प्रकृति प्रणयिनी है! | ||
बूंद-बूंद रिसते इस जीवन को, बांध मृत्यु -अंजलि में | बूंद-बूंद रिसते इस जीवन को, बांध मृत्यु -अंजलि में | ||
भय के वनांतर में उदासीन- | भय के वनांतर में उदासीन- | ||
शांत देव-प्रतिमा है! | शांत देव-प्रतिमा है! | ||
− | मेरे सम्मोहित विमुग्ध जलज- | + | मेरे सम्मोहित विमुग्ध जलज-अंतस् पर खिंची हुई |
प्रकृति एक विद्युत की लीक है! | प्रकृति एक विद्युत की लीक है! | ||
− | ठहरों कुछ, पहले अपने को, उससे सुलझा | + | ठहरों कुछ, पहले अपने को, उससे सुलझा लूँ |
− | तब | + | तब कहूँ- प्रकृति रमणीक है... |
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21:45, 21 अगस्त 2009 के समय का अवतरण
प्रकृति रमणीक है।
जिसने इतना ही कहा-
उसने संकुल सौंदर्य के घनीभूत भार को
आत्मा के कंधों पर
पूरा नहीं सहा!
भीतर तक
क्षण भर भी छुआ यदि होता-
सौंदर्य की शिखाओं ने,
जल जाता शब्द-शब्द,
रहता बस अर्थकुल मौन शेष।
ऐसा मौन-जिसकी शिराओं में,
सारा आवेग-सिंधु,
पारे-सा-
इधर-उधर फिरता बहा-बहा!
प्रकृति ममतालु है!
दूधभरी वत्सलता से भीगी-
छाया का आँचल पसारती,
-ममता है!
स्निग्ध रश्मि-राखी के बंधन से बांधती,
-निर्मल सहोदरा है!
बाँहों की वल्लरि से तन-तरू को
रोम-रोम कसती-सी!
औरों की आँखों से बचा-बचा-
दे जाती स्पर्शों के अनगूंथे फूलों की पंक्तियाँ-
-प्रकृति प्रणयिनी है!
बूंद-बूंद रिसते इस जीवन को, बांध मृत्यु -अंजलि में
भय के वनांतर में उदासीन-
शांत देव-प्रतिमा है!
मेरे सम्मोहित विमुग्ध जलज-अंतस् पर खिंची हुई
प्रकृति एक विद्युत की लीक है!
ठहरों कुछ, पहले अपने को, उससे सुलझा लूँ
तब कहूँ- प्रकृति रमणीक है...